तीसरा खंबा

सैर, फैमिली कोर्ट की – मुकदमा दाखिल होने से समझौते तक

फैमिली कोर्ट में मदद के लिए किसी न किसी तरह वकील तलाश कर ही लिया जाता है। अब आगे का सफर वैसा ही होता है जैसा मुकदमा करने या उस में सफाई पेश करने वाले ने गाइड चुना है, या मिला है।

मुझे पहले इस तरह के मामलों में बहुत रुचि थी, पूरी लगन होती थी। पूरा प्रयास होता था किसी तरह समस्या का समाधान किया जाए। लेकिन जब से फैमिली कोर्ट एक्ट अस्तित्व में आया और वकीलों को वहाँ प्रतिबन्धित किया गया, सारी लगन धूल में मिल गई। वकील की भूमिका ही बदल गई। अब उस की भूमिका वकील की न हो कर एक सलाहकार, ड्राफ्ट्स्-मैन और मुकदमा लड़ना सिखाने वाले शिक्षक भर की रह गई है। अब कोई सेवार्थी आता/आती है तो वकील उस का दावा/आवेदन तैयार कर सकता है, उस के आवश्यक तत्वों की पूर्ति कर सकता है और उसे अपने सेवार्थी के माध्यम से न्यायालय में प्रस्तुत करवा सकता है। इस के बाद हर पेशी पर पक्षकार को ही अदालत में हाजिर होना है, किसी अपरिहार्य कारण के होने पर भी किसी रिश्तेदार के माध्यम से ही अदालत में उपस्थिति माफ करने की अर्जी लगाई जा सकती है। वकील उस में कोई मदद नहीं कर सकता। अन्यथा गैर हाजरी में आप की अर्जी/मुकदमा खारिज हो सकता है या उस में एक तरफा सुनवाई हो कर फैसला हो सकता है।

मुंसरिम के पास अर्जी पेश हो जाने के पर वह एक पेशी रिपोर्ट के लिए देता है, जो कम से कम एक सप्ताह से महीने भर बाद की हो सकती है। इस पेशी तक अदालत का दफ्तर रिपोर्ट कर देता है कि अर्जी का प्रारूप सही है या नहीं, उस के साथ आवश्यक कागजात, कोर्ट फीस, फॉर्म वगैरा पूरे और कायदे के मुताबिक हैं या नहीं? वह यह भी रिपोर्ट करता है कि अर्जी पर क्षेत्राधिकार है या नहीं और वह मियाद अर्थात निर्धारित अवधि में प्रस्तुत की गई है अथवा नहीं? आदि आदि। इस अदालत का निश्चित पेशी पर रिपोर्ट नहीं हो पाने पर रिपोर्ट के लिए आगे की तारीक दे दी जाती है। इस रिपोर्ट में बताई गई कमियाँ पूरी कर देने पर मुकदमा दर्ज कर लिया जाता है और विपक्षी को अदालत में हाजिर होने के लिए नोटिस या सम्मन जारी किया जाता है। जब तक यह सम्मन या नोटिस विपक्षी को नहीं मिल जाता है तारीख बदलती रहती है, और हर तारीख पर नए सिरे से सम्मन व नोटिस न्याय शुल्क के साथ अदालत में प्रस्तुत करने पड़ते हैं। अगर अदालत डाक से इन्हें भिजवाने का आदेश देती है तो उस का खर्चा भी अदालत में पेश करना होता है।

विपक्षी के अदालत में हाजिर हो जाने पर उस को जवाब पेश करने को कहा जाता है। जिस के लिए विपक्षी को तीन पेशियाँ तो आसानी से मिल ही जाती हैं। इस से अधिक भी मिल जाती हैं। वकीलों की हड़ताल से इन अदालतों में काम बाधित नहीं होता लेकिन कभी जज के अवकाश पर होने से तो पेशी बदलती ही है। अधिकांश जिलों में एक ही फैमिली कोर्ट है और मुकदमों की संख्या तीन हजार से कम कहीं नहीं। जब कि अदालत की क्षमता केवल पाँच सौ की है। जिस के कारण एक पेशी तीन-चार माह की होती है। इस तरह जवाब आने में ही साल डेढ़ साल गुजर जाता है।

जब अर्जी का जवाब आ जाता है,  तो दोनों पक्षों को समझाने के लिए दो-तीन बैठकें होती हैं। कुछ ही नगण्य मामले इन में निपट पाते हैं। निपटते भी हैं तो अधिकांश मामलों में कम से कम एक पक्ष के सामने मामला नहीं निपटने के कष्टों के काल्पनिक पहाड़ों का भय खड़ा कर दिया जाता है और वह उन आभासी पहाड़ों के सामने अपने वास्तविक कष्टों को कम आँक कर और अपने अधिकारों का हवन कर, समझौता कर लेता है। अक्सर महिलाएं ही इस समझौते का शिकार होती हैं। 

अगर कोई समझौता सम्पन्न हो जाता है तो उसे रेकॉर्ड कर लिया जाता है, और मुकदमा यहीं खत्म हो जाता है। बाद में उस समझौते की पालना न हो तो पालना कराने के लिए या विवाद का हल न होने और अधिक गंभीर हो जाने पर नए सिरे से अर्जी लगानी पड़ती है। फिर से वही प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।
  (जारी)

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