आज कतिपय अंग्रेजी समाचार पत्रों में समाचार पढ़ने को मिला कि विधि आयोग ने संसदीय समिति की उस सिफारिश को लागू करना असंभव करार दिया है जिस में कहा गया है कि हिन्दी को सर्वोच्च न्यायालय की अनिवार्य भाषा बनाया जाए।
इसी संबंध में हिन्दी ब्लाग जगत में दो आलेख पढने को मिले। जोगलिखी पर संजय बैंगाणी का हे विधि आयोग, हम दास थे, हैं और रहेंगे तथा प्रतिभास परअनुनाद सिंह का विधि आयोग की अवैधानिक सोच।
दोनों ही आलेख बिना विधि आयोग की रिपोर्ट को पढ़े केवल समाचार पत्रों प्रकाशित समाचारों पर आधारित हैं। दोनों ही लेखकों ने विधि आयोग की सोच को गुलामी की मानसिकता करार देते हुए उस पर कठोर प्रहार किये हैं। दोनों की ही भावनाएँ आदर करने के योग्य हैं। लेकिन कुछ वास्तविकताएँ हैं जिन पर भी हमें गौर करना चाहिए।
किसी भी हिन्दी अखबार जो मुझे यहाँ कोटा में पढ़ने को मिले हैं यह समाचार स्थान नहीं पा सका है। या तो इन हिन्दी समाचार पत्रों ने इन समाचारों को इस योग्य ही नहीं समझा कि उसे उन के यहाँ स्थान मिलता। भले ही टटपुँजिए नेताओं की निन्दा-स्वागत विज्ञप्तियों के लिए उन के पास स्थान हो। यह भी हो सकता है कि हिन्दी अखबारों ने इस समाचार को अपने स्तर से ऊँचा या नीचा पाया हो। पर यह एक महत्वपूर्ण खबर थी जो हिन्दी मीडिया में स्थान बनाने में नाकाम रही। अंतर्जाल पर हिन्दी समाचार पत्रों के पृष्ठों पर भी यह समाचार देखने को नहीं मिला। केवल नवभारत टाइम्स के इस पृष्ठ पर यह समाचार देखने में आया वह भी एक अन्य समाचार शीर्षक के साथ जुड़ा था। आप खुद इस की बानगी देखें……
विधि आयोग ने यह भी कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के जज्मंट हिंदी में मुमकिन नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले हिंदी में देने के लिए जजों को बाध्य न किया जाए। संसद की राजभाषा समिति ने सुप्रीम कोर्ट में हिंदी के इस्तेमाल की सिफारिश की थी जिसे विधि आयोग ने सिरे से खारिज कर दिया। आयोग ने कहा है कि हिंदी को सुप्रीम कोर्ट में अनिवार्य भाषा नहीं बनाया जा सकता। हायर जुडीशरी में हिंदी के इस्तेमाल को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। हाई कोर्ट के जज एक जगह से दूसरे हाई कोर्ट में ट्रांसफर किए जाते हैं। उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि जज बनने के बाद वे हिंदी सीखें। आयोग ने कहा कि भारतीय सिस्टम में कानून का साहित्य अंग्रेजी में उपलब्ध है।
जब इस समाचार की यह दुर्दशा हिन्दी में है तो हम कैसे सर्वोच्च न्यायालय से यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वह हिन्दी को अपने कामकाज की अनिवार्य भाषा बना ले? प्रेस इन्फोर्मेशन ब्यूरो ने इस संबंध में जो सूचना दी गई है वह यहाँ देखी जा सकती है।
हिन्दी को न्यायालयों के कामकाज की भाषा बनाने में और भी अनेक बाधाएँ हैं। सबसे पहली जो बाधा है वह देश के सभी कानूनों के हिन्दी अनुवाद का सुलभ होना है। यह वह पहली सीढ़ी है, जहाँ से हम इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। अभी तक सभी भारतीय कानूनों का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं है। यह उपलब्ध होना चाहिए और कम से कम अन्तर्जाल पर इन का उपलब्ध होना आवश्यक है।
1950 से आज तक के सर्वोच्च न्यायालय के सभी महत्वपूर्ण निर्णय अंतर्जाल पर उपलब्ध हैं अनेक उच्च न्यायालयों के निर्णय भी अब अंतर्जाल पर उपलब्ध होने लगे हैं लेकिन वे भी अंग्रेजी में ही हैं। 1950 से आज तक के सभी निर्णयों का भी हिन्दी अनुवाद उपलब्ध होना जरूरी है जिस के बिना हिन्दी में कामकाज चलाया जाना असंभव है।
इन दो बातों क