संसद और विधानसभाएं कानून बनाती हैं। ये कानून किताबों में दर्ज हो जाते हैं। बहुत सारे पुराने कानून हैं और हर साल बहुत से कानून बनते हैं। नयी परिस्थितियों के लिये नये कानून। पुराने कानूनों में संशोधन भी किये जाते हैं। इसलिए कि समाज और देश को सही तरीके से चलाया जा सके, कोई अपनी मनमानी नहीं कर सके।
पर इन कानूनों को कोई न माने तो?
न माने तो, अगर कोई अपराधिक है तो पुलिस चालान करेगी। मुकदमा चलेगा। सजा होगी। सजा के डर से कानून को मानना ही होगा। अगर कानून सिविल है, तो आप या जिस को भी किसी के काम से परेशानी हो वह अदालत के पास सीधे जा कर दावा कर सकता है और कानून की बात को मनवा सकता है।
पर सजा या फिर कानून की बात मनवाने का काम तो तभी होगा न? जब अदालत फैसला देगी?
फिर एक अदालत के फैसले के बाद भी तो अपील है, दूसरी अपील है?
तब वह दिन कब आएगा? जब कानून की पालना हो पाएगी?
जब आखरी अदालत का फैसला हो कर लागू होगा
और आखिरी अदालत का फैसला होने में ही कम से कम बीस पच्चीस बरस तो लग ही जाएंगे।
फिर कौन संसद और विधानसभाओं के बनाए कानूनों की परवाह करता है।
क्या इन विधानसभाओं और संसद को नहीं सोचना चाहिए कि उन के बनाए कानूनों को लागू कैसे कराया जा सकेगा?
शायद ऐसा सोचने की वहां कोई जरूरत महसूस ही नहीं करता है? वहाँ केवल यह सोचा जाता है कि संसद में या विधानसभाओं में वे ऐसे दिखें कि अगले चुनाव में वोट लिए जा सकें।
यह तो अब सब के सामने है कि देश में अदालतें कम हैं। जरूरत की 16 परसेंट भी नहीं। तो क्या इन्हें बढ़ाया नहीं जाना चाहिए?
यह समय की आवश्यकता है कि देश में अदालतों की संख्या तुरंत बढ़ाई जाए। एक लक्ष्य निर्धारित किया जाए कि आज से पाँच, दस, पन्द्रह बरस बाद देश में इतनी संख्या में अदालतें होनी चाहिए। हमारा लक्ष्य तीव्रतम गति से न्याय प्रदान करना होना चाहिए। किसी भी अदालत में कोई भी मुकदमा दो साल से अधिक लम्बित नहीं रहना चाहिए। तभी हम विकसित देशों के समान सुचारु रूप से राज्य व्यवस्था को चला पाऐंगे। कानून और व्यवस्था को बनाए रख पाऐंगे। और यह नहीं कर पाए तो, निश्चित ही हम अपने देश में कानून को न मानने वालों की बहुसंख्या और ‘‘अंधेर नगरी-चौपट राजा” पाऐंगे, और पाऐंगे सर्वत्र फैली हुई अराजकता।