मैं ने कहा था कि संसद और विधानसभाऐं कानून बनाती रहती हैं। कानून का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए उन में सजा के लिये प्रावधान होते हैं, जिन के अन्तर्गत लोगों पर मुकदमे चलाए जाते हैं, चलाए जा सकते हैं। इन कानूनों के तहत लोग सिविल अधिकारों के लिये भी मुकदमा कर सकते हैं।
संसद के बनाये नए कानूनों में से एक निगोशिएबल इन्स्ट्रूमेंट एक्ट की धारा १३८ के बारे में मैं तीसरा खंबा में पहले बता चुका हूँ कि इसे १९८९ में कंपनियों के आर्थिक हित के लिए बनाया गया था और लाखों मुकदमे आज इस कानून के अंतर्गत देश भर की अदालतों में लम्बित हैं।
एक और कानून घरेलू हिंसा से महिलाओं की रक्षा के लिए २००५ में लाया गया जिसे लोग ‘घरेलू हिंसा कानून’ अथवा ‘डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट के नाम से जानते हैं’। इस कानून के अन्तर्गत भी हजारों मुकदमे अब तक अदालतों में पहुँच चुके हैं और लम्बित हैं।
तीसरा कानून जिस के बारे में मैं बता रहा हूँ, उसे राजस्थान की विधानसभा ने मकान मालिकों व किराएदारों के सम्बन्धों को रेगुलेट करने के लिए बनाया जो २००३ में राजस्थान में लागू हुआ। इस कानून से इस विषय पर सिविल न्यायालयों के अधिकार को समाप्त कर दिया गया और इन विवादों के लिए अधिकरण व अपील अधिकरण स्थापित करने का प्रावधान कर दिया गया। राजस्थान सरकार को इस नए कानून के अन्तर्गत अधिकरण व अपील अधिकरण स्थापित करने थे। लेकिन पृथक से एक भी स्थापित नहीं किया गया। हर शहर में एक वरिष्ट खंड न्यायाधीश को अधिकरण तथा जिला न्यायाधीश को अपील अधिकरण घोषित कर दिया गया। अब ये न्यायालय उन के क्षेत्राधिकार के साथ साथ अधिकरण व अपील अधिकरण का काम भी देखते हैं। इस कानून के अन्तर्गत भी हजारों मुकदमे राजस्थान में लम्बित हो गए हैं।
यहाँ कोटा राजस्थान के किराया अधिकरण में सैंकड़ों मुकदमे किराया कानून के अन्तर्गत लम्बित हैं। इस के अलावा इसी न्यायालय को एक हजार से अधिक मुकदमे चैक बाउंस के मामलों के भी सुनने हैं और अन्य अपराधिक मुकदमे भी।
उक्त तीनों कानूनों ने लाखों नए मुकदमे पैदा किए हैं। वे सभी इसलिए कि लोगों को न्याय मिले। सरकारों को इन तीनों कानूनों के लिए नए न्यायालयों की स्थापना करनी चाहिए थी। किन्तु इन कानूनों से उत्पन्न मुकदमों की बाढ़ से निपटने के लिए देश भर में एक भी न्यायालय खोलने के लिए किसी सरकार ने कोई बजट स्वीकृत नहीं किया। पहले से ही मुकदमों का बोझ ढ़ोती न्याय पालिका की अदालतें बोझ से दोहरी हुई कमर पर ही इस वजन को भी उठा रही हैं।
अब दृश्य यह है कि न्यायार्थी जन रोज अदालतों में हजारों की संख्या के लिये जाते हैं। उन्हें तीन माह से छह माह की अगली पेशी मिलती है। वे वकीलों पर खीजते हैं। वकील अदालतों में जजों से और रीडरों से उलझते रहते हैं। अदालतों का डेकोरम और सम्मान रोज स्वाहा हो रहा है। न्यायार्थी उन के ही वकीलों को गालियाँ देते नजर आते हैं। कभी-कभी कहीं-कहीं हाथापाई भी देखने को मिलती है।
सरकारों ने जनता की समस्याओं को हल करने के लिये कानून बनाने की वाह वाही लूट ली। अपने लिए वोटरों के वोट पुख्ता करने का इंतजाम कर लिया। लेकिन समस्या वहीं की वहीं है। कोई मसला हल नहीं हुआ। केवल जनता के रोष का रुख अदालतों की ओर मोड़ दिया गया है। अदालतें बाढ़ग्रस्त हैं। अब केवल ये खबरें आनी शेष हैं कि ‘कितने मरे कितने चिकित्सालय में भरती हैं?’