तीसरा खंबा पर 1 नवम्बर की कानूनी सलाह पर श्री अरुण द्विवेदी की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। उन्हों ने अपनी समस्या के बारे में कुछ विवरण और प्रेषित किए तथा इस तरह सलाह चाही है …
आपने मेरी जिज्ञासा को पोस्ट कर के बड़ी राहत दी है, जिन व्यक्तियों के सम्बन्ध में प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी, उन में से दो लोगों ने शपथ पत्र पर अपना जुर्म कबूलने पर सरकारी गवाह बनाना स्वीकार कर लिया है | इसी प्राथमिकी में जो सीजेएम कोर्ट में विचाराधीन है, धारा ४१९, ४२०, ४६७. ४६८ १२० बी के तहत मेरे द्वारा की गई प्राथमिकी पर विभाग अभियुक्तों को सरंक्षण देने के लिए और मेरा ही मानसिक शोषण करने के लिए शायद यह प्रश्न उठा रहा है कि मैं ने प्राथमिकी दर्ज करवाने के पूर्व विभागाध्यक्ष से अनुमति क्यों नही प्राप्त की, मैं ने अपने बचाव में जिलाधिकारी के मौखिक आदेश का उल्लेख किया है इसकी पुष्टि रिकार्ड से नहीं होती। आदि आदि। मैं यही जानना चाहता हूँ कि क्या राज्य सरकार के किसी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी को क्या इस प्रकार का अपराध करने के लिए इस प्रकार का विभागीय सरंक्षण मिला है क्या? इसी मामले में जिलाधिकारी के द्वारा विभाग को सूचित करने के बाद भी कोई विभागीय कार्यवाही तो दूर सामान्य पूछताछ भी नहीं की गई है। जब आरोप पत्र अदालत में दाखिल हो चुकी है तो विभाग का इस प्रकार से प्राथमिकी के बारे में सवाल जबाब करना क्या न्यायलय के कार्य में दखलंदाजी नहीं है? क्या मैं अपने स्पष्टीकरण में विभाग को यह नहीं लिख सकता कि जब तक मामला न्यालय में है इस पर कोई टिपण्णी करना उचित नहीं होगा?
अरुण जी, लगता है आप बहुत ही सीधे-सादे इंसान हैं, आप ने देश व समाज के प्रति अपने दायित्व को समझते हुए प्राथमिकी दर्ज करवाना उचित समझा और करवा दी। जब किसी विभाग में इस तरह भ्रष्टाचार पनपता है तो उच्चाधिकारियों को उस का ज्ञान होता है और कहीं न कहीं किसी प्रकार से वे भी उस में लिप्त होते हैं। साथ ही उन्हें राजनीति के खिलाड़ियों का साथ भी मिलता है। यही कारण है कि विभाग अभियुक्तों के विरुद्ध कार्यवाही न कर आप को ही परेशान करने पर तुला है जिस से आप घबरा जाएँ और हथियार डाल दें। जिस से अभियुक्त साफ बच निकलें। यदि वे बच निकले तो आप अपने आप को उचित साबित नहीं कर पाएँगे। अब आप को स्वयं को उचित साबित करने का एक मात्र मार्ग यही है कि आप अपने काम को उचित और सही मान कर पूरी ताकत के साथ उस की रक्षा करें।
आप की जानकारी में तो यह भी नहीं है कि प्राथमिकी दर्ज करवाने के पहले विभागीय उच्चाधिकारियों से अनुमति प्राप्त करने का नियम है क्या? मैं ने भी अनेक सरकारी विभागों के नियम खंगाले हैं। लेकिन मुझे कहीं ऐसा नियम नहीं मिला है। ऐसा कोई नियम यदि बनाया भी गया हो या कोई विभागीय निर्देश दिया भी गया हो तो वह गलत होगा और उसे उच्च-न्यायालय के समक्ष रिट याचिका के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है।
इस तरह या तो ऐसा कोई नियम या विभागीय निर्देश नहीं है जिस के उल्लंघन के कारण आप को दुराचरण का दोषी माना जा सके। यदि कोई ऐसा नियम है भी तो उसे सीधे रिट याचिका के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है।
अब आप आप को मिले पत्र का उत्तर इस प्रकार दे सकते हैं-
” जिस मामले के बारे में मुझे आप के उक्त ज्ञापन से स्पष्टीकरण चाहा गया है वह मामला न्यायालय में विचाराधीन है और मैं स्वयं उस मामले में एक महत्वपूर्ण साक्षी हूँ। इस कारण से आप के ज्ञापन का कोई भी उत्तर तब तक देने में असमर्थ हूँ जब तक कि इस मामले का अंतिम रूप से निपटारा नहीं हो जाता है।
आप ने मुझ से प्राथमिकी दर्ज कराने के पूर्व विभागीय अनुमति प्राप्त करन
े के बारे में जानना चाहा है। मैं उस का उत्तर देने के पूर्व यह भी जानना चाहता हूँ कि किस नियम के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज करवाने के लिए विभाग की पूर्व अनुमति की आवश्यकता थी? यदि आप मुझे उस नियम से अवगत करा सकें तो यह नियमानुकूल होगा।”
यदि विभाग आप को ऐसे किसी विभागीय नियम अथवा किसी विभागीय निर्देश से अवगत कराता है तो आप उस विभागीय नियम या निर्देश को उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका द्वारा चुनौती दे सकते हैं और वहीं से आप के विरुद्ध कार्यवाही किए जाने पर स्थगन आदेश भी प्राप्त कर सकते हैं।