क्या अब भारत में अप्राकृतिक मैथुन और समलैंगिकता अपराध नहीं रहेंगे? इन्हें अपराध की श्रेणी से हटाने के लिए संयुक्तराष्ट्र ने अनुरोध किया है और दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ए. पी. शाह युक्त एक पीठ ने शुक्रवार को इसी विषय पर सात वर्ष पुरानी एक याचिका पर सुनवाई की है तथा पक्षकारों के वकीलों को उन की बहस का संक्षेप लिखित में 19 नवम्बर तक प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है। न्यायालय का निर्णय शीघ्र ही अपेक्षित है। यह याचिका एचआईवी/एडस् और यौन स्वास्थ्य पर काम करने वाली एक संस्था नाज़ फाउण्डेशन द्वारा सात वर्ष पूर्व प्रस्तुत की गई थी।
भारत में 1860 में ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाई गई भारतीय दंड संहिता (I.P.C.) की धारा 377 में इन कृत्यों को दंडनीय अपराध बनाया गया था। धारा 377 इस प्रकार है …
प्रकृति विरुद्ध अपराधों के विषय में
377. प्रकृति विरुद्ध अपराध- जो कोई किसी पुरुष., स्त्री, या जीवजन्तु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वैच्छया इन्द्रीय भोग करेगा वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिस की अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।
स्पष्टीकरण- इस धारा में वर्णित अपराध के लिए आवश्यक इन्द्रीय भोग गठित करने के लिए प्रवेशन पर्याप्त है।
इस धारा के अन्तर्गत न केवल पुरुष समलैंगिकता को अपितु किसी स्त्री या पशु के साथ भी अप्राकृतिक मैथुन को अत्यन्त गंभीर अपराध मानते हुए भारी दंड से दंडित करने का प्रावधान है। जब कि स्थिति यह है कि इस धारा के अंतर्गत अपराधों में नगण्य संख्या में अपराध दर्ज होते हैं और आरोप पत्र दाखिल होते हैं। जब कि ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और अमरीका में इस तरह के अपराधों मानने वाले कानूनों को समाप्त किया जा चुका है।
जब कि संयुक्तराष्ट्र के एचआईवी/एडस् विरोधी कार्यक्रम के निदेशक जैफ्री औ’माले ने भारत सरकार से अनुरोध करते हुए कहा है कि जब तक हम समाज में इन गतिविधियों को मान्यता नहीं देते तब तक एचआईवी/एडस् को समाप्त करना संभव नहीं है। इन कृत्यों के अपराध रहने के कारण सचाई सामने नहीं आ रही है और लोगों को प्रेरित कर पाना दुष्कर कार्य है। उन्होंने कहा कि चीन और ब्राजील में जहाँ यह अपराध नहीं है एचआईवी/एडस् पीड़ितों की संख्या में कमी आई है जब कि भारत में अभी भी लाख लोग इस से पीड़ित हैं और पुरुष-पुरुष संबंधों के कारण यह फैलता जा रहा है। उन्हों ने यह भी बताया कि जिन देशों में ये कृत्य अपराध हैं वहाँ एचआईवी/एडस् के प्रसार की दर दुगनी है।
इस मामले पर दिल्ली उच्चन्यायालय के समक्ष भारत सरकार के दो विभागों के विरोधी वक्तव्य सामने आए जहाँ स्वास्थ्य मंत्रालय ने समलैंगिकता को अपराध कानून से हटाने का समर्थन किया वहीं गृह मंत्रालय ने इस याचिका का विरोध करते हुए इसे अपराध बनाए रखने की वकालत की। इस सारे मामले पर न्यायालय का रुख सकारात्मक, वैज्ञानिक और पू्र्वाग्रहमुक्त रहा जब कि इस के विपरीत सरकारी रुख अवैज्ञानिक, दकियानूसी और आदर्शवादी रहा।
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