27 जनवरी से 8 फरवरी तक कोटा से बाहर रहा, अंतर्जाल से दूर भी। परिणाम कि तीसरा खंबा पर बीच में केवल 1 फरवरी को ही एक ही आलेख जा सका। आशा है इस आवश्यक अनुपस्थिति के लिए पाठक क्षमा करेंगे।
कुछ लोग कह सकते हैं कि इस में क्षमा की क्या बात है। लेकिन जब एक व्यक्ति स्वैच्छा से किसी सामाजिक दायित्व को स्वीकार करता है तो उस की नियमितता बनाए रखना भी उस का दायित्व है। मुझे इस अनुपस्थिति से सीख मिली कि तीसरा खंबा जैसे चिट्ठे को नियमित बना रहना चाहिए। आगे कभी मैं अनुपस्थित होने की स्थिति में तीसरा खंबा को नियमित बनाए रखने का प्रयास किया जाएगा।
गुजरात की राजधानी अहमदाबाद के जिला एवं सेशन न्यायालय में प्रयोगात्मक रूप से मॉडल ई-कोर्ट प्रोजेक्ट लागू होने के साथ ही देश की निचली अदालतों में ई-युग का प्रारंभ हो गया है। इस का शुभारंभ आज भारत के मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने किया। इस अवसर पर कहा जा रहा है कि इस परिवर्तन से जहां न्यायापालिका में आने वाली अड़चनें काफी हद तक दूर होंगी, वहीं कर्मचारियों का समय भी बचेगा। इस से न्यायालयी कार्यों की पारदर्शिता बढ़ेगी। इस प्रोजेक्ट के तहत कोर्ट रूम में होने वाली सुनवाई की ऑडियो-विजुअल रिकॉर्डिंग होगी जिस से विचारण और बहस के दौरान रखे गए सबूतों और तर्कों से छेड़छाड़ नहीं की जा सकेगी। न्यायाधीश किसी चीज पर संदेह होने पर सुनवाई की पिछली रिकॉर्डिंग देखकर संशय दूर कर सकेंगे। ऐसे मामले जिनमें, सुनवाई के दौरान जब कोई गवाह पलट जाता है या फिर बचाव और सरकारी पक्ष के तर्कों की समीक्षा की जरूरत होती है, यह सिस्टम बहुत काम का सिद्ध हो सकता है। इस से धन और श्रम की बचत भी हो सकेगी। न्यायालय को जेल, पुलिस कमिश्नर ऑफिस और फॉरेन्सिक साइंस लैब से भी जोड़ा जाएगा जिस से सुनवाई के दौरान अभियुक्त को जेल से कोर्ट लाने तक की जहमत नहीं उठानी होगी। आंकड़े बताते हैं कि कैदियों को जेल से कोर्ट में पेश करने में भारी खर्च आता है उन्हें लाने में पुलिस को अनेक कर्मचारी लगाने पड़ते हैं सो अलग। इन सब से बहुत निजात मिल सकती है। यह भी कहा जा रहा है कि इससे न्याय जल्द पाने में भी आसानी होगी। इस पायलट प्रोजेक्ट की समीक्षा और इससे निकली सिफारिशों को बाद में राज्य के अन्य कोर्टों में भी लागू किया जाएगा।
न्यायालयों का आधुनिकीकरण किया जाना समय की मांग है। यह भी सही है कि इस से कुछ हद तक न्याय किए जाने में होने वाली समस्याओं को हल किया जा सकेगा। लेकिन इस से भारतीय न्याय प्रणाली के मूल रोग को काबू किया जाना संभव नहीं है। भारतीय न्याय प्रणाली की मूल समस्या न्यायालयों की संख्या न्यूनता है। जहाँ अमरीका में प्रति लाख आबादी पर 11 न्यायालय और इंग्लेंड में 6 न्यायालय हैं वहीं भारत में केवल एक न्यायालय है। भारत के विधि और न्याय मंत्री संसद में चार वर्ष पूर्व स्वीकार कर चुके हैं कि देश में एक लाख आबादी पर 5 न्यायालय स्थापित किये बिना न्याय प्रणाली को सुचारु रूप से चला पाना संभव नहीं है।
ध्यम से बेहतर बनाया जा सकता है, उन की गुणवत्ता को उच्चता तक ले जाया जा सकता है लेकिन किसी भी स्थिति में संख्या की कमी का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। केन्द्र सरकार ने अपने इन पाँच वर्षों के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में कुछ निर्णय कर यह दिखाने का प्रयास किया है कि उन्हों ने न्यायालयों की कमी को दूर करने का प्रयास किया है। लेकिन जो कदम उठाए गए हैं वह कतई अपर्याप्त हैं। राज्य सरकारों ने तो इस ओर से आँख मूंद रखी है। किसी राज्य का मुख्यमंत्री न्याय प्रणाली के सुधार और उस में राज्य सरकार की भूमिका पर बोलना पसंद नहीं करता है जैसे इस मामले में उस की सरकार का कोई दायित्व ही न हो। जब कि वास्तविकता यह है कि उच्चतम न्यायालय और उच्चन्यायालयों के अतिरिक्त अन्य सभी जिला स्तरीय न्यायालयों के खर्चों को उठाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है।
अनेक वर्षों तक भारत की न्यायपालिका उस की गिरती हुई साख को चंद चमत्कारिक निर्णयों का प्रचार कर बचाने में लगी है। ये निर्णय अखबारों, टीवी चैनलों की मुख्य खबरें बनते रहे और भारतीय न्यायप्रणाली की जयजयकार होती रही। जनता समझती रही कि भारत में सब जगह भले ही अन्याय हो लेकिन अदालतों में अवश्य ही न्याय मिलता है। लेकिन अब इस तरह के निर्णय भी भारतीय जनता को समझाने में असमर्थ होने लगे हैं। जनता अब चाहती है कि अदालतें निर्णय जल्दी करें। किसी भी मुकदमे का एक अदालत से निर्णय एक वर्ष में और अधिक से अधिक दो वर्षों में आ जाए तथा अपीलों व निष्पादन सहित पाँच-सात वर्षों में विवाद का अंतिम रूप से निपटारा हो सके। इसलिए केन्द्र व राज्य सरकारों को न्यायालयों की संख्या को पाँच प्रति लाख के लक्ष्य की ओर बढ़ाए जाने की दिशा में तेजी से काम करना पड़ेगा। अन्यथा ई-कोर्ट के प्रोजेक्ट को भी वह न्याय प्रणाली की साख बचाए रखने का ही एक फर्जी तरीका ही समझेगी।