बदरीनाथ मेरा पुराना मुवक्किल बहुत दिनों, करीब पाँच बरस बाद एक दिन मुझे अपने दफ्तर में दिखाई दिया, तो मैं पूछ बैठा- अरे! बदरी, आज कैसे?
जो किस्सा उस ने सुनाया वह बहुत पीड़ादायक था।
वह 26 अप्रेल 2001 को जब उस की पहली बेटी कुल जमा 18 की हुई ही थी कि उस ने उस की शादी कर दी। वह नगर निगम के चुंगी दफ्तर में नाका गार्ड होता था। चुंगी बन्द हुई तो उसे किसी गार्डन या निगम के ही अन्य किसी उप-संस्थान धर्मशाला वगैरा में चौकीदारी पर लगाया जाने लगा था। आमदनी बहुत थोड़ी थी। ऊपर की कमाई की न तो गुंजाइश थी और न ही उसे इस का सलीका। जैसे तैसे एक कच्ची बस्ती में मकान बना लिया था जो रेगुलाइज हो जाने पर कीमती दिखाई देने लगा था। कुल दो बेटियाँ थी, उसे।
विवाह बिरादरी के सम्मेलनों में होने लगे थे। तो उन की सफलता के लिए सम्मेलन की कमेटियों के मेम्बर और उत्साही शादियाँ तय कराने की भूमिका भी निभाने लगे थे। कमेटी के लोग और कुछ उत्साही एक दिन उस के घर भी पहुँचे लड़की की शादी सम्मेलन में करने की सीख दी और रिश्ता भी बताया। कम खर्च और घर आया रिश्ता देख दोनों पति-पत्नी का मन ललचा गया। क्यों न ललचाता? लड़का सुंदर था। लड़की से सिर्फ एक बरस बड़ा। तो सम्मेलन में बीना नाम की बड़ी लड़की की शादी हो गई। हेमराज और उसकी पत्नी दोनों दिल से अच्छे। शादी में कम खर्च देख कर सोचा बेटी को कुछ अच्छा दे दिया जाए सो गहना-गाँठा दिया गया, जमाई को शहर की सड़कों पर शान से दौड़ाने के लिए एक अदद मोटर सायकिल भी, और लड़की व ससुराल के सभी रिश्तेदारों को अच्छा खासा कपड़ा-लत्ता और रुपए नारियल से नवाजा गया। बेटी चली गई ससुराल।
पहली बार चार दिन रही। इसी में बीना को सास का उलाहना सुनने को मिला कि उस के बाप ने जमाने को देखते हुए कम से कम एक कलर टीवी और एक सोने की चैन तो जमाई को देनी ही चाहिए थी। इस उलाहने को सुन कर ससुर टेक मिलाता था कि- भागवान कोई बात नहीं लड़की दे दी यही क्या कम है, उन के जिगर का टुकड़ा है और अभी कौन देर हुई है। सम्मेलन में ब्याह किया है, तो कैसे देते? अब की बार बहू को बिदा करेंगे तब जमाई को चैन और बेटी को टीवी के साथ ही भेजेंगे, तू काहे को फिकर करती है।
बीना मायके आई और दो माह बाद विदा हो कर ससुराल गई तो दो दिनों में ही वापस आ गई। इन दो दिनों के दूसरे दिन उसे ‘अपने ही घर’ में दिन भर खाना ही नहीं मिला, कि टीवी और सोने की चैन तो लाई ही नहीं। बीना ने बात मुश्किल से माँ को बताई। पाँच माह बाद जमाई लेने आया तो उस की अच्छी आवभगत की गई और जमाई ने भी उत्तम भाव प्रदर्शित किये तो बेटी की फिर से विदाई हो गई।
नवम्बर के शुरु में गई बेटी जनवरी के मध्य में फिर से लौटी अपनी सास-ससुर के साथ। दोनों बदरी से लड़ कर गए, कि उन्होंने टीवी-चैन नहीं दी। अब वे लड़के की शादी का खर्च 25,000 रुपया लेंगे, मकान का आधा हिस्सा बीना के नाम करो और मोटर सायकिल जमाई के नाम कराओ। फिर बहू को बिदा कराने आएँगे। बदरी सदा का चुप्पा, बेचारा बोला तक नहीं। उन के जाने पर लड़की को संभाला तो वह दो दिन से बुखार में थी और कोई दवाई नहीं की गई थी। लड़की ने बताया कि उस के साथ इस बीच सास ने अनेक बार मारपीट भी की, उस के पति को उकसा कर उस से भी पिटवाया और उसे भूखा भी रखा। बार बार यह भी कहा कि कुछ खिला कर उसे पागल कर देंगे।
दो दिनों के बाद सास-ससुर फिर आए और सब को धमका कर और अपनी मांगें दोहरा कर चले गए। बीना सदमे से ऐसी बीमार पड़ी कि छह माह तक बीमारी ठीक नहीं हो पाई। उसे अस्पताल में दिखाया तो उन्हों ने उसे भर्ती कर लिया। खबर पा कर सास-ससुर मिलने अस्पताल पहुँचे और अपनी मांगें दोहरा कर चल दिये। बीना ठीक हो कर वापस घर पहुँची तो वहाँ फिर सास-ससुर हाजिर। अब की बार धमकी दे गए कि या तो उन की मांगे पूरी करो वरना तलाक दिलवा दो वे अपने लड़के की शादी दूसरी जगह कर देंगे।
बदरी की दास्तान सुन कर मैंने उसे उस की पत्नी और बेटी के साथ बुलाया। वे आए तो आपस में यह राय बनी कि इन हालात में बेटी को ससुराल भेजना तो उसे कुएँ में फैंकना होगा। मैं ने बीना की और से दिया गया दहेज का सामान वापस लौटाने का नोटिस भिजवा दिया। (जारी)
यह कथा जारी रहेगी आगे पुलिस थाना भी है और फैमिली कोर्ट भी………