- जमील अहमद, एडवोकेट
क़ुरआन में एक अध्याय (सूरह) है, जिस का नाम है जिस का नाम है सूरे-तलाक -65:1 से 12
“पैगम्बर –जब तुम में से कोई अपनी पत्नी को तलाक दे तो तलाक निश्चित समय अवधि में दे——-तथा उन्हें अपने घर से बाहर न निकाले।—”
इस्लामी कानून में जितने भी अधिकार पुरुष को दिए गए हैं उन में से ‘तलाक’ अल्लाह के नजदीक सब से घृणित कृत्य है। इस्लाम में विवाहित स्त्री को परिपूर्ण वैधानिक व्यक्तित्व माना गया है। विवाह में रहते स्वयं के निवास के लिए मकान अथवा मकान का हिस्सा, वह अपने व अपने बच्चों के लिए भरण-पोषण प्राप्त करने की अधिकारी है। यह केवल निकाह में रहते हुए ही नहीं बल्कि इद्दत के समय में भी प्राप्त कर सकती है।
इस्लामी कानून के अनुसार केवल पति को ही विवाह विच्छेद (तलाक) का अधिकार प्राप्त है। उस के लिए विभिन्न तरीके बतलाए गए हैं। जैसे तलाक की घोषणा करना, इला,
जब क़ुरआन के जरिए विवाह विच्छेद (तलाक) के लिए कवल पति को ही अधिकार दिए गए हैं तो संसार के किसी भी कानून के तहत विवाह विच्छेद करने के लिए किसी कानूनी प्रक्रिया के तहत कविवाह विच्छेद करने के लिए किसी कानूनी प्रक्रिया के तहत किसी न्यायालय, किसी काजी, किसी जूरी, या मुफ्ती को अधिकार नहीं दिए जा सकते हैं। ऐसा कोई भी कानून बनाया जाना या किसी न्यायालय को अधिकार दिया जाना क़ुरआन के कानून के विपरीत होगा जो इस्लाम धर्म में मान्य नही हो सकता है।
भारतवर्ष में बना कानून “डिजोल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरिजेज एक्ट 1939” भी क़ुरआन में प्रतिपादित सिद्धान्तों के विपरीत है। जिस में पत्नी को न्यायालय के जरीए तलाक प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है, यह अधिनियम संविदा पर आधारित है । संविदा के कानूनों के तहत समस्त अनुबंध संविदा माने जाते हैं उसी आधार पर मुस्लिम विवाह (निकाह) को भी संविदा माना गया है। परंतु मुस्लिम विवाह (निकाह) संविदा नहीं है। यदि मुस्लिम विवाह संविदा होता तो क़ुरआन में इस संविदा को बाध्य (एन्फोर्स) करवाने का प्रावधान भी अवश्य होता।
संसार की किसी भी सभ्य सामाजिक व्यवस्था में ऐसा कोई नियम अथवा कानून नहीं है जिस के तहत किसी स्त्री को बाध्य किया जा सके कि वह अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी पुरुष के साथ उस की पत्नी के रूप में निवास करे। इस्लाम महिला को यह अधिकार देता है कि यदि उस के पति का बर्ताव उस के प्रति अमानुषिक है तो वह उस से अलग रह कर निवास कर सकती है तथा अपने पति से निवास की व्यवस्था एवं भरण-पोषण क्लेम कर सकती है। इस्लाम महिला को यह अधिकार देता है कि वह निकाह में रहते हुए भी अपने पति से मेहर की राशि प्राप्त कर सकती है। यदि मेहर मोअज्जिल तय हुई है और तलाक के बाद भी प्राप्त कर सकती है। पति से तलाक के बाद इद्दत के समय का भरण-पोषण भी प्राप्त कर सकती है। ये सारे नियम व प्रक्रियाएँ क़ुरआन में दर्शाई गई हैं। इस प्रकार मुस्लिम विवाह स्त्री और पुरुष के मध्य एक पवित्र बंधन है। जो क़ुरआन के कानून पर आधारित है। यह कंट्रेक्ट एक्ट के तहत अनुबंध नहीं है।
क़ुरआन में दाम्पत्य जीवन की पुनर्स्थापना (रेस्टीट्यूशन ऑफ कंजुगल राइटस्) के लिए कोई प्रावधान नहीं है। क्यों कि पति पत्नी केवल अपनी स्वैच्छा से ही साथ-साथ निवास कर सकते हैं। उन्हें इस के लिए किसी कानून का सहारा ले कर मजबूर नहीं किया जा सकता। हमारे देश की अदालतें मुस्लिम विवाह को संविदा मान कर मुस्लिम पति या पत्नी के पक्ष में दांपत्य जीवन की पुनर्स्थापना के लिए डिक्री पारित कर देती है परंतु यह ऐसी डिक्री होती है जिस की इजराय या पालना करवाना न्यायालय के लिए संभव नहीं है। ऐसे आदेश व डिक्रियाँ क़ुरआन के विपरीत हैं।
डिजोल्यूशन ऑफ मुस्लिम मेरिजेज एक्ट 1939 पत्नी को अधिकार देता है कि वह उस मे वर्णित कुछ आधारों पर अपे पति के विरुद्ध तलाक (विवाह विच्छेद) की डिक्री प्राप्त करने के लिए न्यायालय में दावा दायर कर सकती है। परंतु क़ुरआन के कानून में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसी डिक्रियाँ जो न्यायालय द्वारा विवाह विच्छेद हेतु पारित की जाती हैं वे इस्लामी कानून के तहत सही नहीं हैं। यहाँ तक कि 1939 का अधिनियम भी क़ुरआनके सिद्धांतों के विपरीत है।
इस प्रकार विवाह और विवाह विच्छेद की संपूर्ण समस्याओं की क़ुरआन द्वारा पूर्ण व्याख्या की गई है। इस्लाम धर्म के मानने वाले वे चाहें सुन्नी मत के मानने वाले हों या शिया अथवा किसी अन्य मत से संबंध रखते हों क़ुरआन में बतलाए गए कानून को मानने को बाध्य हैं।