यह बात आप को अजीब ही लगेगी कि सरकार आर्थिक व्यवहार में काम आने वाले एक प्रकार के विलेख के व्यवहार की संस्कृति को विकसित करने और उसे आम प्रचलन में लाने के लिए एक दांडिक कानून बनाए और उस दांडिक कानून से नए प्रकार के अपराध अस्तित्व में आने के बीस वर्ष पूरे होते होते देश के राजधानी राज्य में काम करने वाली मजिस्ट्रेट अदालतों में लंबित मुकदमों की कुल संख्या के 55% से अधिक इसी अपराध से संबंधित हों।
1988 तक भारतीय कानून की पुस्तकों में इस तरह का कोई कानून नहीं था कि चैक अनादरित हो जाने पर किसी प्रकार की सजा होती हो। 1988 में संसद ने परक्राम्य विलेख अधिनियम, 1881 में एक नया अध्याय जोड़ा। अधिनियम में इस अध्याय को जोड़े जाने के उद्देश्यों और कारणों के बारे में कहा गया था कि चैक जैसे महत्वपूर्ण विलेख के उपयोग की संस्कृति को विकसित करने और आम बनाने के लिए इस अध्याय को जोड़ा जा रहा है।
यह भी अत्यन्त विस्मय की बात है, कि आर्थिक व्यवहार में एक विशेष प्रकार के विलेख के उपयोग की संस्कृति को आम बनाने के लिए किसी दंड विधि का उपयोग किया गया हो। दंड किसी अपराध को रोकने का साधन हो सकता है लेकिन आर्थिक व्यवहार में किसी पद्धति को विकसित करने के लिए दंड का प्रावधान करना किसी शीर्षासन कर रही खोपड़ी का ही काम हो सकता है।
उस उलट खोपड़ी के उत्पादन का नतीजा सामने आ रहा है। इस कानून ने एक नए प्रकार के अपराध को जन्म दिया और वह अपराध इतना बढ़ गया कि उस ने अपराधिक अदालतों के काम काज के आधे से अधिक भाग पर अपना कब्जा जमा लिया है। इस से देश भर में हो रहे वास्तविक अपराधों के मुकदमों के विचारण की प्रक्रिया ही बाधित हो गई है। अपराधियों की पौ-बारह हो गई है। उन्हें पता है कि अदालतों को इतनी फुरसत ही नहीं कि वे उन्हें सजा दे पाएँ।
इस कानून के कारण देश की अपराध नियंत्रण प्रणाली तो प्रभावित हुई ही है। अदालतों से संबद्ध कर्मचारियों में अनुचित धन के लेन देन में भी बहुत वृद्धि हुई है। (जारी)