सुप्रीम कोर्ट का उक्त निर्णय चिकित्सक के अपराधिक दायित्व के बारे में था। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि अपराधिक दायित्व के कारण किसी भी चिकित्सक को तभी सजा दी जा सकती है जब कि चिकित्सक के विरुद्ध अपराध को संदेह से परे साबित किया जा सके। जब कोई मामला ऐसा होता है कि चिकित्सक ने ठीक से चिकित्सा नहीं की और लापरवाही की तो इस बात को तब तक साबित कर पाना संभव नहीं है जब तक कि यह स्पष्ट न हो जाए कि चिकित्सक ने विधिपूर्वक चिकित्सा करने में लापरवाही की है। इस लापरवाही को साबित करने के लिए पहले तो यह साबित करना पड़ेगा कि जब चिकित्सक के पास रोगी पहुँचा तो वह किस हालत में था, दूसरा यह कि उस हालत में उसे किस तरह की चिकित्सा की आवश्यकता थी और तीसरा यह कि उस तरह की चिकित्सा में चिकित्सक ने लापरवाही की। पहले दो तथ्य साबित करने के लिए किसी न किसी चिकित्सक की गवाही आवश्यक होगी। क्यों कि एक निष्णात चिकित्सक ही यह बता सकता है कि रोगी जब चिकित्सक के संपर्क में आया तो उस की हालत क्या थी और उस स्थिति में उस की क्या चिकित्सा की जानी चाहिए थी?
अब यदि बिना किसी चिकित्सक की साक्ष्य के किसी चिकित्सक के विरुद्ध किसी मुकदमें में किसी चिकित्सक को गिरफ्तार किया जाता है और उस के विरुद्ध मुकदमा चलाया जाता है तो ऐसी अवस्था में चिकित्सक को सजा तो निश्चित रूप से नहीं ही मिलेगी लेकिन उसे परेशान और अपमानित होना पड़ेगा। इस स्थिति को जानने के उपरांत लोग किसी भी चिकित्सक को परेशान करने की नीयत से भी उस के विरुद्ध अभियोजन चला सकते हैं। इस तरह न केवल चिकित्सक को परेशान किया जाएगा अपितु न्याय की प्रक्रिया का दुरूपयोग भी होगा। इन्हीं दोनों बातों को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उक्त निर्णय दिया है कि जब तक चिकित्सक की लापरवाही का चिकित्सकीय साक्ष्य उपलब्ध न हो जाए तब तक कोई मुकदमा आगे नहीं बढ़ाया जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से किसी भी अपराधी चिकित्सक को बचाने का उद्देश्य पूरा नहीं किया जा सकता। लेकिन ऐसे चिकित्सक जिन्हों ने कोई अपराध नहीं किया है उन्हें व्यर्थ में परेशान किए जाने से बचाया जा सकता है।
अब यह कहा जा रहा है कि किसी चिकित्सक के विरुद्ध चिकित्सकीय साक्ष्य जुटा