क्या सर्वोच्च न्यायालय ने क्षेत्राधिकार के बाहर जा कर सरकार के काम में हस्तक्षेप किया है?
दिनेशराय द्विवेदी
लाखों टन गेहूँ पर्याप्त और सुरक्षित भंडारण व्यवस्था के अभाव में बरसात का शिकार हो कर नष्ट हो गया और अब प्रदूषण और फैला रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर सरकार को कहा कि गेहूँ सड़ने देने के स्थान पर गरीबों को मुफ्त बाँट दिया जाए। खाद्य मंत्री का उत्तर था कि सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है आदेश नहीं। लेकिन बाद में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह सुझाव नहीं अपितु निर्देश था। इस पर विपक्ष ने संसद में सरकार को आड़े हाथों लिया और खाद्य मंत्री को यह कहना पड़ा कि यदि निर्देश है तो सरकार उस की पालना करेगी।
अब सोमनाथ चटर्जी ने यह सवाल उठाया है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह का आदेश अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जा कर दिया है। इस मामले में पूर्व विधि मंत्री शांतिभूषण ने उन का साथ दिया है। उन के इन बयानों से एक नई बहस ने जन्म लिया है कि आखिर हमारी न्यायपालिका की स्थिति क्या है? और उस का अधिकार क्षेत्र क्या है? सोम दादा ने अपनी बात कहते हुए कहा कि कोर्ट का उद्देश्य सही था, लेकिन उस ने इस पर शायद कोई विचार नहीं किया कि इस का क्रियान्वयन कैसे होगा। हर न्यायिक आदेश को क्रियान्वयन के योग्य होना चाहिए। खाद्यान्नों पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का क्रियान्वयन संभव नहीं है। उन का यह भी कहना है कि यह आदेश सरकार के कामकाज में दखल है क्यों कि न्यायपालिका नीतियों पर निर्णय करने की भूमिका अदा नहीं कर सकती। हर संवैधानिक संस्था को अपनी भूमिका का सही ज्ञान होना चाहिए। इतने सारे मुकदमे लंबित हैं क्या सरकार या कोई अन्य ऐजेंसी बीच में पड़ कर यह कह सकती है कि हम मुकदमों का फैसला करते हैं। क्या एक शाखा ठीक से काम नहीं करती तो क्या दूसरी उस का अधिग्रहण कर लेगी? यदि सेना या एनएसजी सही काम नहीं करती है तो क्या न्यायपालिका उसे बताएगी कि उसे कैसे काम करना है?
शांतिभूषण ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय का इरादा ठीक था लेकिन आदेश पारित करने में वह सभी सीमाएँ लांघ गया है। क्या नीति अपनानी है? यह बताना सर्वोच्च न्यायालय का काम नहीं है। उसे सरकार से गरीबों को अनाज बाँटने का आदेश देना गलत है। यदि कोई गरीब व्यक्ति सार्वजनिक वितरण प्रणाली से अनाज पाने का हकदार है और नही पाता है तो न्यायालय विशिष्ट आदेश पारित कर सकता है। लेकिन इस मामले में मुफ्त अनाज बाँटने की सरकार की कोई नीति नहीं है। कुछ अन्य विधिवेत्ताओं ने यह भी कहा है कि अब समय आ गया है कि सरकार को न्यायपालिका को सौंप दिए गए क्षेत्राधिकार को वापस लेने के लिए सुदृढ़ प्रयास करने चाहिए। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वन भूमि को गैर वन भूमि में परिवर्तित करने पर निगाह रखने का भी उल्लेख किया गया है।
सोम दादा और शांतिभूषण जी का हम आदर करते हैं, लेकिन उन की राय से इत्तफाक नहीं रखते। केवल सरकार, केवल विधायिका और केवल न्यायपालिका राज्य नहीं हैं। लेकिन तीनों मिला कर राज्य का गठन करते हैं। देश में सरकार की लापरवाही के कारण लाखों टन