पिछले दिनों मेरे ही एक संबंधी के पुत्र को 498-ए में गिरफ्तार किया गया। हम करीब साल भर पहले से यह जानते थे कि ऐसी स्थिति आ सकती है। लेकिन हमारा प्रयास था कि गृहस्थी टूटे ना। हमारे वे सारे सामाजिक प्रयास असफल हुए और नौबत यहाँ तक आ गई। आम तौर पर जैसा मुकदमा था, उस की जमानत विचारण मजिस्ट्रेट द्वारा ही ले लेनी चाहिए थी। लेकिन उस की पत्नी और उस के वकील ने विरोध किया। न्यायालय में जो मेलोड्रामा उपस्थित हुआ उस से पत्नी के प्रति उपजी सहानुभूति ने जमानत नहीं होने दी। एक सप्ताह बाद यही बात सत्र न्यायालय में हुई। और करीब तीन सप्ताह उपरांत यही दृष्य जब उच्च न्यायालय में उपस्थित हुआ तो न्यायाधीश ने पत्नी के वकील से प्रश्न पूछने आरंभ किए और सारा मामला पंक्चर हो गया। अभियुक्त की जमानत हुई और पत्नी के वकील को एक लंबा भाषण अदालत से सुनना पड़ा। इस मामले में आरोप पत्र दाखिल हो चुका है, लेकिन यह मामला अब सालों चलेगा। क्यों कि अदालत को फुरसत नहीं है, वह चार अदालतों के बराबर भार उठा रही है। इस बीच दोनों ने ही अपनी अपनी ओर से विवाह-विच्छेद के आवेदन प्रस्तुत कर दिये हैं, अर्थात दोनों अलग होना चाहते हैं। फिर भी जल्दी यह मामला निपट लेगा इस के आसार नजर नहीं आते। अभी लेन-देन पर खींचतान होगी, आदि आदि।
न्यायालयों की कमी अब नासूर बन चुकी है, और उस ने बहुत सी नई बीमारियाँ खड़ी की हैं। पक्षकारों से ले कर न्यायाधीश तक यह मानने लगे हैं कि किसी भी अपराधी को उस के किए की सजा देना इस न्यायिक व्यवस्था में आसान नहीं है। फरियादी यह समझता है कि उस के कसूरवार को जितना परेशान कर सको इस प्रक्रिया से ही कर लो। न्यायालय समझता है कि कुछ दिन जमानत नहीं होगी तो मुलजिम को अकल आ जाएगी। पुलिस या प्रशासन को किसी से निपटना होता है तो वह उस पर मुकदमा बना देती है, वह भी ऐसा कि जिस में जमानत कई दिनों तक न हो सके। मुकदमा ऐसी चीज बन गया है जो व्यक्ति को उस का मकसद पूरा करने में बाधा पैदा करता है। अधीनस्थ अदालत के न्यायाधीश जरा भी विवादित मामलों में ऐसी धारणा के शिकार होने लगे हैं कि हम तो सजा सुना देते हैं। यदि अभियुक्त को तकलीफ होगी तो अपील कर लेगा। वकीलों की जजों के मामले में इस तरह की धारणाएँ आम हैं कि यह जज सजा देने की मानसिकता वाला है और दूसरा उदार जो मुश्किल से ही किसी को सजा देता है। यह भी कि एक खास जज जमानत के मामले में उदार है और दूसरा बहुत सख्त। जितने भी लोग सरकार या व्यवस्था के विरुद्ध जनता के अधिकारों के संघर्ष में उतरते हैं उन के साथ यही होने लगा है। इस तरह यह न्यायिक व्यवस्था न्याय देने के स्थान पर जनता को पीड़ा पहुँचाने और जन-अधिकारों की लड़ाई में बाधा खड़ी करने का औजार बनने लगी है। जब न्यायपालिका की स्थिति यह बना दी गई हो तो वह किसी भी भांति चाहते हुए भी निष्पक्ष नहीं रह सकती।
ऐसे में ये सवाल उठाना बेमानी है कि, “लोकतंत्र में रहना है तो न्यायिक प्रक्रिया को मानना होगा” और कि “न्यायिक निर्णयों की आलोचना नहीं होनी चाहिए”। आज बिनायक सेन मामले के माध्यम से ये सवाल उठ रहे हैं। लेकिन वहाँ लोग मनोगत आधार पर दो खेमों में बँटे हैं, एक वे जो बिनायक को नक्सलियों का सहायक मानते हैं और दूसरे वे जो उन्हें वास्तविक