इन ग्राम न्यायालयों का स्थापना खर्च केंद्र सरकार दे रही है लेकिन इन के संचालन का व्यय राज्य सरकारों को उठाना है। बस यहीं गड़बड़ हो गई। कोई भी राज्य सरकार न्याय व्यवस्था पर एक रुपया भी उस से अधिक खर्च नहीं करना चाहती जो वह अभी खर्च कर रही है, बल्कि उस का प्रयत्न रहता है कि स्थापना के समय जो स्टाफ अदालतों को मुहैया कराया गया था उस में और कटौती कर दी जाए। आम तौर पर एक अदालत को दो स्टेनोग्राफर मिल जाएँ तो अदालतों के काम की गति बढ़ जाती है। जब कि हालत यह है कि अनेक अदालतों के पास एक स्टेनोग्राफर भी नहीं है। अनेक जज काम की गति को बनाए रखने के लिए अपने घरों से निर्णय खुद लिख कर ला रहे हैं।
ग्राम न्यायालयों के मामले में भी राजस्थान सरकार ने यही किया। प्रत्येक ग्राम न्यायालय में जज के अतिरिक्त ग्यारह व्यक्तियों के स्टाफ की अनुशंसा की गई थी, जो उस के मोबाइल चरित्र को देखते हुए उचित ही है। लेकिन राजस्थान सरकार केवल तीन व्यक्तियों से अधिक का स्टाफ नहीं देना चाहता। जिस से ग्राम न्यायालय को चलाना संभव नहीं है। इस तरह तो ग्राम न्यायालय केवल प्रदर्शनी की वस्तु ही बन कर रह सकते हैं। राजस्थान सरकार ने 2004 में प्रांत में नया किराया कानून लागू कर किराया अधिकरण और अपील अधिकरण स्थापित करने की घोषणा की थी। लेकिन आज तक स्वतंत्र रूप से एक भी किराया अधिकरण स्थापित नहीँ हुआ। पूर्व से स्थापित अदालतों को ही इन अधिकरणों की शक्तियाँ प्रदान कर काम चलाया जा रहा है। फिलहाल राजस्थान हाईकोर्ट ने कड़े शब्दों में कह दिया है कि इतने कम स्टाफ के साथ ग्राम न्यायालय स्थापित नहीं किए जा सकते, यदि राज्य सरकार की मंशा ग्राम न्यायालय खोलने की नहीं है तो वह स्पष्ट इनकार क्यों नहीं करती। हाईकोर्ट की इस आपत्ति के बाद राज्य के विधि विभाग ने पत्रावली को फिर से वित्त विभाग के हवाले कर दिया है।
स्पष्ट है कि राज्य सरकारें न्याय पालिका का भार वहन करने को तैयार नहीं है। वैसे भी राज्य सरकारों की करतूतें ऐसी हैं कि अदालतों को उन के विरुद्ध सब से
अधिक मुकदमे सुनने पड़ते हैं। ऐसा लगता है कि राज्य सरकारें अदालतों को अपना शत्रु समझने लगी हैं और उन्हें कमजोर बनाए रखना चाहती हैं। यह सही है कि भारत एक संघीय राज्य नहीं है। वह राज्यों का ऐसा संगठन है जिस से राज्य स्वतंत्र नहीं हो सकते। न्यायपालिका के मामले में केंद्र और राज्यों के बीच यह अंतर्विरोध उस मुकाम पर पहुँच गया है जिस से समूचे देश की न्याय व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो चुका है। अब यह सोचने की जरूरत महसूस होने लगी है कि न्याय व्यवस्था को राज्यों की अधिकारिता से अलग कर केवल केंद्रीय विषय क्यों नहीं बना दिया जाए।