तीसरा खंबा

चैक अनादरण मामलों का क्षेत्राधिकार किस मजिस्ट्रेट को है? कानून में ताजा संशोधन क्या है?

rp_cheque-dishonour-295x300.jpgसमस्या-

संतोष शर्मा ने भरतपुर, राजस्थान से समस्या भेजी है कि-

रक्राम्य विलेख अधिनियम Negotiable Instrument Act मेँ सरकार द्वारा सन 2015 मेँ जून माह मेँ जो संशोधन किया गया है क्या वह प्रभाव मेँ आ गया है और वह क्या संशोधन किया गया है?

समाधान

रक्राम्य विलेख अधिनियम की धारा 138 के द्वारा चैक अनादरित होने की तिथि के 30 दिनों के भीतर नोटिस देने पर चैक की धनराशि नोटिस मिलने से 15 दिनों में चैक धारक को अदा न करने को अपराधिक कृत्य बनाया गया था। नोटिस के उपरान्त 15 दिन की अवधि समाप्त होने के दिन उक्त अपराध के लिए वाद कारण उत्पन्न होता है। वाद कारण उत्पन्न होने के दिन से एक माह में चैक धारक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में अपना परिवाद प्रस्तुत कर सकता है। दशरथ रूपसिंह राठौर के मामले में सुप्रीमकोर्ट द्वारा 01.08.2014 को दिए गए निर्णय से यह विवादित हो गया था कि यह परिवाद किस मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इस निर्णय में कहा गया था कि जिस शाखा द्वारा चैक अनादरित किया जाता है उस शाखा के स्थित होने के क्षेत्र के मजिस्ट्रेट के न्यायालय में यह परिवाद प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इस मामले में एक व्याख्या यह थी कि जब चैक भारत की सभी शाखाओं में भुगतान योग्य हो तो अक्सर जहाँ चैक प्रस्तुत किया जाता था उसी नगर की शाखा द्वारा वह अनादरित किया जाता है, और इस तरह जिस नगर में चैक समाशोधन हेतु प्रस्तुत किया जाता है उसी नगर में अनादरित होने के कारण उसी नगर के मजिस्ट्रेट के न्यायालय को यह परिवाद सुनने का क्षेत्राधिकार होगा। लेकिन इस व्याख्या को कोई भी न्यायालय स्वीकार नहीं कर रहा था।

सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय में इस तथ्य का विस्तार से उल्लेख किया गया था कि किस तरह चैक अनादरण के मुकदमों ने देश भर के मजिस्ट्रेट न्यायालयों में मुकदमों की बाढ़ पैदा की है। उस के मुकाबले मजिस्ट्रेट न्यायालयों की संख्या अतिन्यून है। (भारत में पहले ही जरूरत की चौथाई से भी कम अदालतें हैं।) इस से अपराधिक न्याय व्यवस्था संकट में आ गयी है। इस तरह सुप्रीमकोर्ट के इस निर्णय का एक उद्देश्य यह भी प्रतीत होता था कि यदि चैक जारीकर्ता बैंक शाखा में प्रस्तुत करने की बाध्यता होगी तो इस तरह के मुकदमे प्रस्तुत करने की संख्या बहुत कम हो जाएगी। एक तरह से यह फैसला सरकारों और न्याय व्यवस्था के बीच एक अंतर्विरोध को प्रकट करता है। इस निर्णय से इस तरह के मुकदमों के विचारण में अराजकता सी आ गयी। अदालतें मुकदमों को चैकजारीकर्ता शाखा के न्यायक्षेत्र के मजिस्ट्रेट के न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए लौटाने लगीं।

रकारें कभी यह नहीं सोचतीं कि आबादी के हिसाब से पर्याप्त न्यायालय स्थापित करने चाहिए। ब्रिटेन के मुकाबले हमारे यहाँ आबादी के अनुपात में एक चौथाई से भी कम और अमरीका के मुकाबले 1/10 से भी कम अदालतें स्थापित हैं। इन की संख्या तुरन्त बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। लेकिन इस दिशा में कभी किसी सरकार ने गंभीरता से नहीं सोचा है और न्याय व्यवस्था पंगु हो गयी है। उस की यह पंगुता दिनों दिन बढ़ती जा रही है।

स मामले में सरकार ने तय किया कि कानून में संशोधन कर के चैक को समाशोधन के लिए प्रस्तुत किए जाने वाली शाखा के न्याय क्षेत्र को अन्तिम रूप से धारा 138 परक्राम्य विलेख अधिनियम के परिवाद प्रस्तुत करने का क्षेत्राधिकार प्रदान कर दिया जाए। इस के लिए दिनांक 15 जून 2015 को अध्यादेश जारी कर संशोधन कर दिया गया। वर्तमान में यह संशोधन प्रभावी है और अब केवल इस संशोधन के अनुसार चैक को समाशोधन के लिए प्रस्तुत किए जाने वाली शाखा के न्याय क्षेत्र के मजिस्ट्रेट के न्यायालय को ही प्रस्तुत किया जा सकता है। लेकिन इस अध्यादेश का प्रभाव केवल 14 दिसंबर 2015 तक ही रहेगा। यदि इस बीच संसद इस कानून को पारित कर उसे अधिसूचित नहीं करती है तो यह अध्यादेश निष्प्रभावी हो सकता है और यह कानून उसी पटरी पर आ जाएगा।

प संदर्भित निर्णय व अध्यादेश निम्न लिंकों को क्लिक कर के पढ़ सकते हैं-

  1. निर्णय दशरथ रूप सिंह राठौर
  2. अध्यादेश परक्राम्य विलेख अधिनियम 15.06.2015
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