यह सब है, लेकिन इस बात की भी खोज होना आवश्यक है कि आखिर अदालत के बाबुओँ-चपरासियों में फैला भ्रष्टाचार और कदाचित न्यायाधीशों के स्तर पर होने वाला भ्रष्टाचार क्यों जगह पाता है? इस का मुख्य कारण भी अदालतों का कम होना है। हम जानते हैं कि रेल में रिजर्वेशन न मिलने पर स्टेशन पर कंडक्टर को पटा कर बर्थ प्राप्त कर के यात्रा करना लगभग हमेशा संभव हो जाता है। यदि पर्याप्त मात्रा में बर्थ हों और प्रत्येक व्यक्ति को बर्थ खिड़की से निर्धारित दामों पर मिलने लगे तो कोई कंडक्टर को पूछने वाला नहीं है। अदालतों की सब से बड़ी बीमारी मुकदमों का लंबा चलना है। सभी बुराइयों की जड़ अदालतों की संख्या बेहद कम होना है। एक बार आप पर्याप्त संख्या में अदालतों की स्थापना कर दें और त्वरित निर्णय होने लगें तो भ्रष्टाचार तथा निर्णयों को प्रभावित करने के अन्य तरीकों पर आसानी से काबू पाया जा सकता है। लेकिन सरकार को जनता को न्याय दिलाने की न तो कोई इच्छा है और न ही उस की कोशिश कहीं नजर आती है।
सरकार अदालतों की स्थापना कर न्याय प्रदान करने के स्थान पर मुकदमों को कम करने के वैकल्पिक तरीके तलाशने का काम करने में अधिक रुचि दिखाती है। इन उपायों में एक उपाय यह है कि बहुत से विवादों को नियमित अदालतों के स्थान पर विशेष अधिकरणों के क्षेत्राधिकार में ले जाना। यह उपाय भी जनता को न्याय से महरूम करने का ही तरीका है। इन अधिकरणों पर पूर्ण नियंत्रण सरकार का होता है। उच्च न्यायालयों के पास इन का पर्यवेक्षीय काम अवश्य होता है लेकिन वे नियंत्रण में सरकार के होती हैं। फिर सरकार जिन अधिकरणों को चाहती है कार्यरत बना सकती है और जिन को चाहती उन्हें नाकारा कर देती है। मसलन औद्योगिक विवाद अधिनियम के अंतर्गत स्थापित औद्योगिक अधिकरणों और श्रम न्यायालयों को अधिकांश राज्यों ने बेकार की वस्तु समझ कर बेका