श्री बाबूलाल काँकरेलिया का प्रश्न है….
मैं दिनांक 20.12.2005 से केन्द्रीय सरकार के कार्यालय में मैं एक ऐजेंसी के माध्यम से डाटा कंप्यूटर ऑपरेटर के पद पर काम कर रहा हूँ। ऐजेंसी के बिल के साथ कार्यालय नोट शीट पर भेजा गया है और ऐजेंसी के लेटरहेड पर मेरी उपस्थिति को सहायक निदेशक तक प्रत्येक माह सत्यापित कर हस्ताक्षर कर दिया गया है। यह क्रम दिनांक 20.08.2007 तक चला है। क्या मैं सरकारी कर्मचारी बन सकता हूँ? मेरा उचित मार्गदर्शन करें।
उत्तर
बाबू लाल जी !
आप ने अपनी जो वर्तमान स्थिति बताई है, वह ठेकेदार द्वारा उपलब्ध कराए गए कर्मचारी की है। आप सरकारी संस्थान के नहीं, अपितु उस ठेकेदार ऐजेंसी के कर्मचारी हैं, जिस ने आप को सरकारी संस्थान को उपलब्ध कराया है, और जो आप को वेतन देती है। सरकारी संस्थान के अधिकारियों द्वारा इसी कारण से आप की उपस्थिति प्रमाणित कर के आप की नियोक्ता ऐजेंसी को भेजी जाती है और वहाँ से आप की उपस्थिति के आधार पर आप को वेतन प्राप्त होता है।
पहले यह काम केवल बड़े निजि संस्थान किया करते थे। किसी भी संस्थान द्वारा नया कर्मचारी रखने पर वह अन्य कर्मचारियों के बराबर वेतन की मांग करने लगता है, कर्मचारी संगठन भी उस के साथ खड़े होते हैं, और यह कानून की भी मांग है कि किसी भी संस्थान में एक जैसा काम करने वाले कर्मचारियों को भिन्न वेतन नहीं दिया जा सकता। हाँ, वरिष्ठता के आधार पर कुछ कम-अधिक हो सकता है। लेकिन निजि संस्थान नए कर्मचारी न्यूनतम वेतन पर श्रमिकों से काम लेना चाहते हैं। इस के लिए उन्होंने ऐजेन्सियों जिन्हें ठेकेदार (contractor) भी कहा जाता है, के माध्यम से कर्मचारियों से काम लेना आरंभ कर दिया। अब वही काम जो मूल नियोजक के कर्मचारी करते थे, ठेकेदार के कर्मचारी करने लगे। धीरे-धीरे यह भी होने लगा कि बहुत से संस्थानों में प्रबंधन के अतिरिक्त सारा काम ठेकेदार कर्मचारियों के माध्यम से लिया जाने लगा। इस का नियोजकों को लाभ यह था कि जब भी ठेकेदार के कर्मचारी वेतन बढ़ाने या नियमित करने की मांग करें। ठेकेदार का ठेका ही निरस्त कर दिया जाए। उसी ठेकेदार को नए नाम से या किसी अन्य ठेकेदार को नया ठेका दे दिया जाए। इस से सारे कर्मचारी एक साथ नौकरी से निकाले जा सकते थे।
इस प्रथा ने मानव श्रम के असीम शोषण का मार्ग प्रशस्त कर दिया। ठेकेदार मजदूरों और उन की यूनियनों ने अदालतों के समक्ष उन्हें मूल उद्यम का कर्मचारी माने जाने और उन के समान वेतन व अन्य लाभ देने की राहत मांगी तो अदालतों ने इस आधार पर कि वास्तव में ये कर्मचारी मूल संस्थान के ही हैं और ठेका एक छद्म व्यवस्था है कर्मचारियों के पक्ष में निर्णय देने आरंभ किए। इस प्रथा को समाप्त किए जाने के लिए श्रम संगठनों ने भी आंदोलन करने आरंभ किए और सरकार पर दबाव बनाया तो संसद द्वारा ठेका श्रमिक (नियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम-1970 The Contract Labour (Regulation & Abolition) Act, 1970 पारित किया गया। इस अधिनियम में यह व्यवस्था है कि उपयुक्त
सरकार किसी भी संस्थान में कुछ कार्यों के लिए ठेका श्रमिक नियोजित करने पर प्रतिबंध लगा सकती है और कुछ को ठेका श्रमिकों के लिए खुला छोड़ सकती है। कानून बनने के बाद सरकारों ने अनेक कार्यों में ठेका श्रमिकों का नियोजन प्रतिबंधित भी किया।
सरकार किसी भी संस्थान में कुछ कार्यों के लिए ठेका श्रमिक नियोजित करने पर प्रतिबंध लगा सकती है और कुछ को ठेका श्रमिकों के लिए खुला छोड़ सकती है। कानून बनने के बाद सरकारों ने अनेक कार्यों में ठेका श्रमिकों का नियोजन प्रतिबंधित भी किया।
लेकिन सरकार के पास कुंजी होने का परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे ठेका श्रमिक उन्मूलन का काम नगण्य हो गया है। उक्त कानून ठेका श्रमिक उन्मूलन के स्थान पर ठेका श्रमिक पद्धति को मजबूत करने वाला सिद्ध हुआ। 1975 से 1985 तक के दशक में जिन पहले सरकारे अपने यहाँ आकस्मिक कामों पर दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी नियोजित करती थी। लेकिन विकास कार्यों की गति के चलते वे दो वर्ष या उस से भी अधिक समय तक लगातार काम करते रहते थे। बाद में उन्हें नोकरी से बर्खास्त किया जाता तो वे औद्योगिक विवाद अधिनियम का सहारा लेकर अदालती निर्णय से वापस नौकरी पर आ जाते थे और उन्हें नियमित करना पड़ता था। इस का इलाज सरकारों ने निजि मालिकों से सीखा। अब सरकारें भी ठेका श्रमिक रखने लगीं। यह सरकारी मशीनरी के भी हित में था। अब कर्मचारी सप्लाई करने के ठेके देने के लिए सरकारी अफसर अच्छी खासी रिश्वत ले सकते थे। यह सरकारों के भी हित में था कि इस तरह वे अनेक योजनाओँ का खर्च कम रख सकती थीं। आज स्थिति यह है कि जितनी भी नई सरकारी योजनाएँ हैं उन में ठेकेदार द्वारा उपलब्ध कराए गए कर्मचारियों से ही काम चलाया जा रहा है। सिद्धांततः इन नियोजनों में ठेकेदार कर्मचारियों को नियोजन देना गलत है, लेकिन यह भी सरकार को ही तय करना है कि इन नियोजनों में ठेकेदार श्रमिकों का नियोजन वर्जित किया जाए अथवा नहीं, तो वह क्यों यह काम करे?
तीसरा खंबा के पिछले आलेख सरकारी नौकरी में नियमानुसार नियुक्त व्यक्ति ही नियमित हो सकता है, आकस्मिक या संविदा कर्मचारी नहीं में बताया था कि सरकारी नौकरी में नियुक्ति के लिए हमेशा कानून और नियम बने होते हैं और उन नियम कानूनों के अनुसार ही कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी में प्रवेश पा सकता है, अन्यथा नहीं। इस तरह यह लगभग नामुमकिन ही है कि कोई आकस्मिक या संविदा कर्मचारी किसी सरकारी उद्यम में काम पा ले और फिर तमाम कायदे-कानूनों को ताक पर रख कर वहाँ स्थाई और नियमित नौकरी प्राप्त कर ले। आकस्मिक और संविदा कर्मचारी का नियोजक तो सरकार या उस का कोई विभाग अथवा संस्थान होता है। ठेकेदार द्वारा उपलब्ध कराए गए कर्मचारी का तो सरकार से कोई संबंध ही नहीं है। ऐसी अवस्था में यह बिलकुल नामुमकिन है कि किसी ठेकेदार कर्मचारी को सरकारी संस्थान में नियमित नौकरी प्राप्त हो जाए। अच्छे कर्मचारी अपने यहाँ बनाए रखने के लिए सरकारी अफसर यह हवा बनाते रहते हैं कि इस तरह दो-चार साल काम कर लेने पर उन्हें सरकारी नौकरी में नियमित कर दिया जाएगा। इस लालच के भरोसे वे कर्मचारियों से सरकारी कामों के अलावा निजि सेवाएँ भी खूब प्राप्त करते हैं।
बाबूलाल जी ! यदि आप योग्य हैं और प्रतियोगिता में टिके रह सकते हैं तो आप को लगातार स्थाई नौकरी के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए और अवसर मिलते ही वर्तमान नियोजन त्याग कर उसे पकड़ लेना चाहिए।