तीसरा खंबा और अनवरत के आलेखों “लिव-इन-रिलेशनशिप और पत्नी पर बेमानी बहस” और “लिव-इन-रिलेशनशिप 65% से अधिक भारतीय समाज की वास्तविकता है” पर जो सब से बड़ी आपत्ति आई थी वह इस बात पर थी कि 65% लोगों को यह रिश्ता स्वीकार्य है। मैं जानता था कि इस वास्तविकता को जान कर कुछ लोगों को दुख होगा। लेकिन यह वास्तविकता है। मैं ने यह कदापि नहीं कहा था कि 65% रिश्ते ऐसे हैं। मैं कह रहा था कि इतने लोग इन रिश्तों को मान्यता देते हैं। इस तरह का रिश्ता हो जाने पर रिश्ता रखने वाले लोगों को समाज में गलत निगाह से नहीं देखा जाता। नाता करने वाली महिला को पुरुष की पत्नी जैसा ही अधिकार प्राप्त हो जाता है।
जब मैं वकालत में आया ही आया था तो अक्सर कोई न कोई बुजुर्ग मेरे पास आ जाता और कहता -साहब इस औरत को आजाद कराना है। इस का अर्थ होता कि उस औरत को उस के पति से छुटकारा दिलाना जिस से वह दूसरे पुरुष के साथ रह सके। मैं आजाद कराने का अर्थ ही नहीं जानता था। मैं बहुत सारे सवाल करता। क्यों? पति के साथ क्या परेशानी है? दूसरे पुरुष का क्या भरोसा है? आदि आदि। मैं उन्हें बताता कि शादी केवल अदालत के फैसले से ही टूट सकती है। उस के लिए वहाँ तलाक का मुकदमा करना होगा। वह बुजुर्ग मुझे नौसिखिया समझ कर चल देता। मैं बड़ा प्रसन्न होता कि मैं ने एक कानून से असम्मत काम नहीं किया। एक बार मेरी बात को एक सीनियर टाइपिस्ट सुन रहा था। उस ने बाद में मुझे समझाया और सारी बात बताई कि इन समाजों में यह प्रथा है कि एक महिला जो अपने पति के साथ परेशान रहती है, उस के साथ नहीं रहना चाहती,वह दूसरे पुरुष के साथ रहने चली जाती है। लेकिन उस के इस तरह चले जाने पर पति कहीं पुलिस में रपट लिखा दे और दूसरे पुरुष पर मुकदमा चले तो इस बात का सबूत रहे कि वह महिला स्वेच्छा दूसरे पुरुष के साथ गई थी और इस बात का भी कि वह कोई जेवरात वगैरह मूल्यवान संपत्ति ले कर नहीं आयी है। इस के लिए उस महिला और उस पुरुष जिस के साथ वह रहने जा रही है के शपथ पत्र स्टाम्प पेपर पर टाइप करवाओ और नोटेरी के पास प्रमाणित करवा दो।
इस काम को करने के लिए टाइपिस्ट दुगना टाइपिंग चार्ज लेता, नोटेरी कम से कम चार गुना और कई बार दस गुना फीस प्रमाणीकरण के लिए लेता और वकील को उस की अच्छी फीस मिल जाती। काम होता मुश्किल से घंटे भर का। बाद में अगर कोई मुकदमे बाजी होती तो दोनों उस के ही पास आते और अलग से फीस देते। सब की कमाई का अच्छा इंतजाम था। उस का कारण भी था कि महिला को आजाद कराने और दूसरे पुरुष के साथ भेजने वाले लोग इस बात को महिला के पति, उस के परिवार और जानने वालों से कुछ दिन तक छुपाना चाहते।
हर मामले में बाद में झगड़ा होता। महिला वापस उस के पति के पास तो नहीं जाती। लेकिन उस का पति दस पांच लोगों को ले कर महिला के नए साथी पुरुष के घर जा धमकता। वहाँ कुछ उस पुरुष के समर्थक भी एकत्र होते। पंचायत बैठती और बात यह होती कि महिला तो उस की इच्छा से उस के साथ रहे लेकिन वह पति को क्षतिपूर्ति के लिए धनराशि अदा करे। जिस से वह अपने लिए नयी औरत ला सके। पंचायत धनराशि तय. करती। बच्चे होते तो उन का फैसला भी करती कि वे कहाँ रहेंगे? इस तरह दी गई राशि के लिए कहा जाता कि झगड़ा दे दिया गया। इस के बाद दोनों परिवारों में सुख शांति हो जाती। इस तरह अनेक जीवन में औरतें तीन से चार बार मर्द बदल लेतीं और झगड़े निपटते रहते। यह सब आज भी जारी है। भारत की 65% आबादी इन प्रथाओं को मान्यता प्रदान करती है। कुल मिला कर यह विवाह की संस्था का ही एक रूप है जो कानून की परिधि के बाहर है और चल रहा है। अनेक बार लोग अपनी बेटियों को ब्याह देते हैं। उन्हें लगता है कि उन की बेटी को कष्ट है और वह दूसरी जगह आराम से रह सकती है तो उसे पति के घर से अपने घर ले आते हैं और दूसरे के साथ नाते भेज देते हैं। फिर पति दूसरे आदमी से झगड़ा लेने पहुंच जाता है।
अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों में यह प्रथा मौजूद है और विवाह संस्था के साथ साथ पूरे सामंजस्य के साथ मौजूद है। यह प्रथा अनेक प्रकार के नए झगड़े खड़े करती है। जैसे इस तरह के रिश्तों में एक की मृत्यु पर उस का उत्तराधिकार कैसे तय हो? ब्याहता पत्नी से बच्चे मौजूद हों और नाते वाली से भी हों तो फिर उत्तराधिकार का क्या होगा? एक्सीडेंट में मृत्यु होने पर मुआवजा किसे मिले? यही कारण है कि इस तरह के रिश्तों पर भारतीय अदालतों को जब तब अपनी राय देनी पड़ी है। इस तरह के रिश्तों पर अदालतों की राय के उदाहरण पिछली सदी के आरंभ से ही मिलते हैं। (जारी)
अगले आलेख में अदालतों के निर्णयों के सार से…..