बबीता वाधवानी मानसरोवर, जयपुर, राजस्थान ने निम्न चिट्ठी कानूनी सलाह के लिए “तीसरा खंबा” को लिखी है-
महोदय,
मैंने एम.एड. प्रीवीयस राजस्थान विश्वविद्यालय से तलाक व विधवा कोटे में पास किया व मुझे आकाशदीप शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान मानसरोवर, जयपुर सेन्टर मिला। 24 जुलाई को 16629/- रू. फीस के जमा हुए। पूर्व में काउन्सलिंग के समय 2000/- रू. जमा हुए। कक्षाएँ शुरू होने के साथ ही 2000/- रू. अतिरिक्त ड्रेस कोड के नाम पर मांगे गए। मैं विरोध करती रही कि ये साडी 250/- रू. की है सही पैसे ले लो, मैं साडी खरीदकर पहन लूंगी। मुझे 2000/- रू. न देने पर बहुत अपमानित किया जाता रहा। 5/11/2009 को कहा गया -आप जाएँ पहले 2000/- रू. जमा कराएँ तब कक्षा में आना। तलाकशुदा हूँ व एक बच्ची का भरण पोषण करना था। नियमित विद्यार्थी होने और कुछ अन्य कारणों से नौकरी छोड दी। मेरे पास जमा पूँजी थी कि मैं एक साल मेहनत करूँगी व कम में गुजारा चला लूंगी। ऐसे में दो हजार मेरे लिए बहुत बडी रकम थी। 6/11/09 प्रो. फुरकान कुलपति राज विश्वविद्यालय से शिकायत की व कालेज जाना छोड दिया। कोई कार्यवाही न होने पर 11/11/09 को डीबी स्टार दैनिक भास्कर में मामला प्रकाशित करवाया। तब कालेज के सदस्य मेरे घर पहुचे कि आप कालेज आएँ, आपसे पैसे नहीं मांगे जाएंगे। मुझसे कहा गया कि लिख के दें कि आप गरीब घर से हैं और ड्रेस कोड के पैसे नहीं दे सकती। मैंने उनकी भाषा सही कर दी एप्लीकेशन में कि मैं अपनी ड्रेस खरीद सकती हूँ, उचित दाम लें मुझ से। दान की अभी मुझे जरूरत नहीं है।
मुख्य परीक्षा हो गयी। रिजल्ट आया तो मैं बहुत डरते हुए लेने गई। मुझे अंक तालिका नहीं दी गई। कहा अलमारी की चाबी नहीं मिल रही। मुझे कमरे विशेष में बैठने के लिए कहा गया। मैं नहीं बैठी क्योंकि दो बार मैं मौत का सामना कर चुकी थी मैं बाहर खडी रही। अंक तालिका नहीं मिली मैं वापस आ गई और मैंने उसी दिन मानवाधिकार आयोग से सम्पर्क किया। 13/8/10। जस्टिस जगत सिंह ने बहुत निर्दयता से कह डाला कि 90 दिन बाद आकर पूछ लेना। मैं बेरोजगार थी, मुझे नौकरी करनी ही थी मैंने प्रार्थना की कि जल्दी करें। आप फोन भी कर देंगे तो मुझे मेरी अंकतालिका मिल जायेगी पर उन्हों ने ऐसा नहीं किया। 90 दिन बीत गये। 30/8/10 को मुख्यमत्री कार्यालय में शिकायत की। वहाँ से जानकारी उनको हो गयी और फिर दबाव डाला कि लिख कर दे जाओ अंकतालिका ले जाओ। आइ जी पी मानवाधिकार से सम्पर्क कर दुबारा 25/12/10 को प्रार्थना पत्र लिखा कि अंकतालिका अपने संरक्षण में दिलाएँ, मेरी जान का खतरा है वहाँ।
24/1/11 को बार बार जाने पर अंकतालिका मानवाधिकार आयोग अध्यक्ष पुखराज सिरवी की अध्यक्षता में मिली। पर हर्जाना मांगने पर जस्टिस पुखराज सिरवी ने मना कर दिया कि हर्जाना बनता ही नहीं।
8/3/11 को केन्स जयपुर ने अनन्त शर्मा को मामला दिया। पर हर्जाना नहीं दिलवा सके। मैंने महसूस किया कि उन्होने गलत तरीके से मेरा केस अपने तक रखा। मैंने उनसे केस वापस मांगा कि केस वापस मुझे दे दें, या न्यायालय में लगाएँ। 12/1/12 को केस न्यायालय में लगा, हर्जाना के लिए एक साल बरबाद हुआ। रोजगार की दृष्टि से 30000 रु. महावार नुकसान व 50000 रु. मानसिक रूप से परेशान किया गया उस के लिए व 10000 रु. खर्चे के। 19/1/12 , 10/4/12, 22/5/12, 4/6/12 , 26/6/12 को मैं उपस्थित हो चुकी हूँ और अपने केस की पैरवी खुद ही कर रही हूँ, केन्स की वकील आती ही नहीं थी। अत: मैने कह दिया कि वो केस से हट जाये। वो शायद प्रतिपक्षी के प्रभाव में आ गये हैं। एल सी भारतीय बहुत अमीर है वो हर किसी को प्रभावित कर लेता है। केस संख्या 86/2012 है, बबीता वाधवानी बनाम आकाशदीप। उपभोक्ता संरक्षण अदालत द्वितीय, जयपुर। मैं देख रही हू जज साहब भी न्याय की कुर्सी पर नहीं बैठते। मुझे उनसे अक्सर चैम्बर में बात करनी होती है। 150 दिन में न्याय मिल जाना चाहिए, पर 6 महीने बीत गये हैं। अगली तारिख 19/7/2012 है। कृपया बताएँ कि क्या मैं जज साहब से कह सकती हूँ कि मैं परेशान हो चुकी हूँ, मेरे केस का निर्णय करें। 6 महीने बहुत होते हैं। मुझे अपनी बेटी की पढाई भी देखनी है जो सैकण्डरी में है व अपनी कमाई का स्थायी जरिया भी ढूंढना है।
तीसरा खंबा की प्रतिक्रिया-
बबीता जी ने अपनी आप बीती जिस तरह इस चिट्ठी में व्यक्त की है उस से पता लगता है कि निजि शिक्षण संस्थाओं की स्थिति क्या है? शिक्षा की उन्नति के लिए शिक्षा के निजिकरण की बहुत दुहाई दी जाती है। लेकिन निजि शिक्षण संस्थाएँ जो कि सोसायटीज पंजीयन अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत होती हैं और लाभ का कोई काम नहीं कर सकतीं। वे किस तरह अपने संचालकों के लिए भारी भरकम काली कमाई का माध्यम बनी हुई हैं उन की इस कहानी से पता लगता है। इन शिक्षण संस्थाओँ में विद्यार्थी या तो प्रबंधन की हर बात को शिरोधार्य करता चले या फिर बबीता जी की तरह उत्पीड़न का शिकार बने। हमें बबीता जी के साहस की दाद देनी चाहिए कि वे शोषण के इस माहौल में अकेली जूझती रहीं और उन्हों ने अन्याय को स्वीकार न कर के संघर्ष किया और एम.एड. करने में सफल हुईं। मानवाधिकार आयोग भी नौकरशाही से अछूता नहीं है उन्हें भी अपना काम नियमों के अंतर्गत करना पड़ता है वे भी किसी को तुरंत राहत दिलाने में सक्षम नहीं हैं। संभवतः इसी कारण से न्यायमूर्ति जगत सिंह उन्हें तुरंत राहत नहीं दिला सके। जब कि वे तुरंत न्याय दिलाने के लिए ख्यात रहे हैं।
अब भी यह मामला सारे राजस्थान के विद्यार्थियों और जनता का है। प्रान्त में सैंकड़ों विद्यालय इसी तरह चल रहे हैं। लेकिन न तो कोई राजनैतिक दल इस के विरुद्ध् आवाज उठाता है और न ही कोई अन्य सामाजिक संस्था। कोई इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन यही सब चलता रहा तो ये शिक्षण संस्थाएँ ऐसे ही जनता को लूटती रहेंगी और ये लूट कभी समाप्त नहीं होगी। राजस्थान के सभी विद्यार्थी संगठनों और सामाजिक संगठनों को शिक्षण संस्थाओं की इन ज्यादतियों के विरुद्ध समवेत स्वर में आवाज उठानी चाहिए।
मेरी नजर में कुछ त्रुटि बबिता जी की भी रही। जयपुर में कुछ संस्थाएँ ऐसी हैं जो इस विषय पर सक्रिय हो सकती थीं। पर शायद बबीता जी को उन का खयाल ही नहीं आया। ये संस्थाएँ इस लिए भी इस क्षेत्र में काम नहीं कर पाती हैं कि उन्हें विद्यार्थियों और उन के अभिभावकों का साथ नहीं मिलता। वे तो शांतिपूर्ण (?) तरीके से अपनी डिग्री हासिल कर लेना चाहते हैं। वे चाहें तो जयपुर में ऐसी संस्थाएँ हैं जिन के सामने वे अपना मामला रख सकती हैं। मानवाधिकारों और सिविल राइट्स के मामले में जयपुर में पीयूसीएल ने अच्छा काम किया है जिस के लिए कविता श्रीवास्तव से संपर्क किया जा सकता है।
हमारी बबिता जी को सलाह है कि वे उपभोक्ता न्यायालय से त्वरित न्याय की आशा न करें। इन न्यायालयों में माह – दो माह में एक पेशी होती है। बबीता जी उन पेशियों पर जाती रहें। उस से उन के नौकरी करने और अन्य कामों में कोई बड़ी बाधा उत्पन्न नहीं होगी। हाँ वे जज साहब से त्वरित न्याय के लिए लगातार कहती रहें तभी उन के मामले में अन्य मामलों की अपेक्षा कुछ जल्दी निर्णय हो सकता है। उपभोक्ता न्यायालय भी कुछ नियमों और प्रक्रिया के अंतर्गत चलता है। उस में समय लगता ही है। वे यह भी ध्यान रखें कि उन की ओर से पर्याप्त और उचित साक्ष्य न्यायालय के समक्ष अवश्य प्रस्तुत की जाए। क्यों कि न्यायालय का निर्णय भावनाओँ पर आधारित न हो कर तथ्यों और साक्ष्यों पर आधारित होगा। बबीता जी जज साहब को कह सकती हैं कि वे न्यायालय की सुस्ती और प्रक्रिया से परेशान हो चुकी हैं। लेकिन इसे पूरी तसल्ली से जज साहब के सामने रखें। जिस से जज को वास्तव में यह अहसास हो कि इस मामले में उन्हें कुछ तो जल्दी करनी होगी और इस अहसास के अंतर्गत वे उन के मामले में शीघ्र निर्णय दे सकें। न्यायालय अपनी प्रक्रिया पूरी करे इस का धैर्य तो बबीता जी को रखना होगा। क्यों कि जिस व्यवस्था से वे न्याय चाहती हैं, उस का चरित्र रातों रात बदल नहीं सकता। उसे बदलने के लिए भी जनता को सरकार पर दबाव बनाना होगा। अन्यथा यह सब ऐसे ही चलता रहेगा और अधिक सुस्त होता चला जाएगा।