जेट कर्मियों को छंटनी के दूसरे दिन ही वापस काम पर बुला लिया गया। एमएनएस के राज की धमकी, या बाला साहेब का हुकुम, न सरकार की मिन्नत और न ही प्रबंधकों का अंतःकरण कोई भी इस का कारण नहीं था। ये सब श्रेय ले कर भुनाने वाले लोग हैं। असली कारण है कानून।
औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 25-एन जो कि 1975 में इस अधिनियम का भाग बनी थी तथा जिसे 1984 में संशोधित किया गया था, यह प्रावधान है कि जिस औद्योगिक प्रतिष्ठान में विगत वर्ष में औसतन सौ कर्मचारी प्रतिदिन सेवा में रहे हैं वहाँ कोई भी कर्मकार सरकार की पूर्व अनुमति के बिना छंटनी नहीं किया जाएगा। इस के लिए छंटनी करने वाले संस्थान को पहले सरकार को छंटनी के लिए आवेदन करना होगा। सरकार छंटनी से प्रभावित होने वाले पक्षकारों को नोटिस दे कर उन की सुनवाई करेगी और छंटनी के कारणों का वास्तविकता और उपयुक्तता को देखेगी और छंटनी करने की अनुमति के आवेदन को स्वीकृत या अस्वीकृत करेगी। सरकार को यह निर्णय 60 दिनों में करना होगा। 60 दिनों में निर्णय नहीं किए जाने पर छंटनी करने की अनुमति का आवेदन स्वीकृत माना जाएगा।
कोई भी पक्ष जो सरकार के निर्णय से अप्रसन्न हो वह सरकार को आवेदन कर सकता कि मामले को पुनर्विलोकन के लिए औद्योगिक न्यायाधिकरण प्रेषित किया जाए, ऐसे किसी भी आवेदन पर या सरकार स्वयं अपनी इच्छा से भी मामले को पुनर्विलोकन के लिए औद्योगिक न्यायालय को प्रेषित कर सकती है।
बिना अनुमति लिए छंटनी करने पर सभी कर्मचारी वैसे ही सब लाभ प्राप्त करेंगे जैसे उन्हें छंटनी का नोटिस ही नहीं दिया गया था। इस कानून में यह भी प्रावधान है कि कर्मचारी को तीन माह का नोटिस व छटनी के दिन छंटनी का मुआवजा दिया जाएगा, या फिर तीन माह का वेतन व छंटनी का मुआवजा छंटनी के नोटिस के साथ ही दिया जाएगा।
अब प्रश्न उठता है कि क्या जेट जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को कानून की इतनी मोटी बात भी पता नहीं थी क्या?
यह कानून केवल कारखानों, बागानों और खदानों पर लागू होता है। इस कारण से यह मान कर कि यह जेट एयरवेज पर लागू नहीं होगा, छंटनी कर दी गई। बाद में कानूनी सलाहकारों ने बताया कि रोड ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन्स पर यह लागू है और जेट एयरवेज भी उस की जद में आता है। यह कानूनी सलाह मिलने पर एक बारगी छंटनी को वापस लेने के सिवाय जेट एयरवेज के पास कोई चारा नहीं था। नहीं लेने पर जिस खर्चे को घटाने की बात थी वह और बढ़ जाता। कर्मचारियों को तो बिना उन से काम लिए वेतन देने ही पड़ते, कानूनी खर्च और बढ़ जाता।