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भाई-भाभी के बीच संबंधों को बनाए रखने में अपनी भूमिका अदा करें साधारण आपसी गाली गलौच तलाक का आधार नहीं हो सकता पूर्व पति से उत्पन्न संतान के पिता का स्थान वर्तमान पति दत्तकग्रहण से ही प्राप्त कर सकता है पहले पति के जीवित रहते, बिना तलाक लिए दूसरा विवाह कर के पत्नी ने दंडनीय अपराध किया है तलाक के बारे में नहीं, पत्नी को मित्र बनाने और उस के साथ जीवन बिताने के बारे में सोचिए अदालत की डिक्री के बावजूद पत्नी को पति के साथ रहने का बाध्य नहीं किया ज सकता
सलीम भाई,
आजकल एक माहौल बना हुआ है कि यदि पत्नी के विरुद्ध कुछ किया तो वह धारा 498-ए और धारा 406 भा.दं.सं. का मुकदमा लगा देगी। इस कारण से जरा भी कोई नाइत्तफाकी होती है तो यह समझ लिया जाता है कि ऐसा होगा। लेकिन ऐसा होना जरूरी नहीं है। मैं ने पिछली पोस्ट में भी धारा-9 हिन्दू विवाह अधिनियम का आवेदन सीधे प्रस्तुत करने की सलाह नहीं दी है। मैं ने सलाह दी है कि वे पहले अपनी पत्नी को मना लें। सही बात तो यह है कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है। हम भले ही स्त्रियों को देवी का दर्जा भी दे देते हैं और यह भी कह लेते हैं कि जन्नत माँ के कदमों के नीचे है। लेकिन वास्तविकता यह है कि स्त्रियों के साथ समाज का व्यवहार दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा है। लेकिन अब वक्त आ गया है कि स्त्रियाँ बराबरी का व्यवहार चाहती हैं, दूसरी और पुरुष अपना दंभ नहीं छोड़ना चाहता, वह स्त्रियों को पुराने तरीके से ही हाँकना चाहता है। इस अंतर्विरोध के कारण वैवाहिक विवादों की संख्या बढ़ी है। लेकिन यदि अच्छे काउंसलर हों तो उन की मदद से बिना अदालत जाए भी इस तरह के अधिकांश विवादों को सुलझाया जा सकता है।
जहाँ तक आप के मित्र की आशंका का प्रश्न है। आज कल देश के सभी पुलिस थानों को यह हिदायत है कि धारा 198-ए और 406 भा. दं. सं. की शिकायतों पर पहले अच्छी तरह जाँच लिया जाए कि वे फर्जी तो नहीं हैं। इस कारण से आप के मित्र को घबराने की आवश्यकता नहीं है। यदि उन के विरुद्ध कोई शिकायत पुलिस को जाती है तो उन्हें चाहिए कि वे सचाई को पुलिस अधिकारियों के सामने रखें। यदि आप के मित्र सही हैं तो उन का कुछ भी नहीं होगा। यदि पुलिस का अन्वेषण अधिकारी तरफदारी कर रहा हो तो उच्चाधिकारियों को लिखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के सिवाय अन्य राज्यों में तो धारा 138 दं.प्र.सं. के अंतर्गत अग्रिम जमानत भी कराई जा सकती है। उत्तर प्रदेश में जहाँ धाराभी धारा 482 दं.प्र.सं. के अंतर्गत पुनरीक्षण याचिका उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर प्रथम सूचना रिपोर्ट को रद्द कराया जा सकता है।
रचना जी,