मनुष्य के विकास की जांगल, बर्बर और सभ्यता की अवस्थाओं में से दूसरी बर्बर अवस्था में जब एक कबीले (एक साथ रहने वाला मानव समूह) अनेक परिवार सम्मिलित थे, तब अवश्य ही ऐसा कोई काल रहा होगा जब कबीले क कुछ सदस्य कबीले मुखिया के सामने अपनी बात कहने में संकोच करने लगे होंगे और उन्हें अपने ही कबीले के किसी अन्य सदस्य की सहायता इस के लिए करनी पडी होगी। उन्होंने अपने कबीले के सदस्यों मे से किसी एक का चुनाव किया होगा जो उन की बात को मुखिया के सामने रख सके। शायद यही समय था जब किसी वकीलों के पूर्वज ने मनुष्य जाति में जन्म लिया होगा। सभ्यता की इस अवस्था के दास युग के समापन और सामन्ती युग के प्रारम्भ में जब राज्य ने एक व्यवस्थित रूप ले लिया था। तब राजा तक जो कि एक मात्र न्यायकर्ता होता था, अपनी फरियाद पंहुचाने और पैरवी करने के लिए कुशल लोगों की आवश्यकता नियमित रूप से पड़ने लगी होगी। उसी समय वकालत के काम ने व्यावसायिक रूप लिया होगा जो विकसित होते होते आज के व्यवस्थित रूप तक पंहुचा है। हम इतिहास में खोजें तो इस के प्रमाण मिल जाऐंगे। इस काम में कोई इतिहासकार मदद कर सकता है।
इस तरह हम समझ सकते हैं की वर्गों में विभाजित समाजों में व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य एक आवश्यक संस्था है वहीं न्याय प्रणाली भी उस का एक आवश्यक अंग है। आज जब चीन और भारत जैसे एक अरब से भी अधिक जनसंख्या वाले राज्य इस दुनियां में मौजूद हैं, तब उन की विशालता के अनुसार ही उन की न्याय प्रणालियां का भी विशाल और जटिल होना अनिवार्य हो गया है और उन में वकीलों विशिष्ठ भूमिका होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। विकास के साथ साथ समाज की जटिलताऐं बढ़ती ही गई हैं और उसी मात्रा में विवाद भी बढ़े हैं। अनेक पुराने प्रकार के विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो गए हैं, वहीं नई अवस्थाओं में नए प्रकार के विवादों में जन्म लिया है। इन नए विवादों का निपटारा पुराने कानूनों के माध्यम से करने के प्रयत्न जब अपर्याप्त हो जाते हैं तो नए कानून अस्तित्व में आते हैं।
वकील समाज के लिए अनिवार्य हैं, वे न्यायार्थी और न्यायकर्ता के बीच की कड़ी हैं, वे प्रोफेशनल हैं और इस काम के लिए अपना मेहन्ताना प्राप्त करते है। यदि हम देखें तो वे ही है जो वर्तमान युग की न्याय व्यवस्था की वे प्रारंभिक इकाई हैं। न्याय व्यवस्था का सारा भार वे ही उठाते रहे है।
मेरी पिछली पोस्ट पर आई टिप्पणियों में से एक थी कि
लोग अब समझने लगे हैं कि वकील वास्तव में विवाद के समाधानमें नहीं, बल्कि मुकदमे को लंबे समय तक जारी रखने में दिलचस्पी रखते हैं, ताकि उनकी कमाई का जरिया बना रहे।
लोगों में ऐसी धारणा बनती है, मगर यह धारणा सभी वकीलों के लिए सही नहीं है। अधिकांश वकील अपने व्यवसाय और अपने मुवक्किलों के प्रति ईमानदार और कर्तव्यपरायण हैं और अपने मुवक्किल, न्याय प्रणाली तथा समाज के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह पुरी निष्ठा के साथ करते हैं। यह सही है कि वकीलों का एक तबका ऐसा भी है जो अधिक कुशलता हासिल नहीं कर पाता है और अपने व्यवासाय के दौरान इस निष्ठा को कायम नहीं रख पाता। समाज में जिस अवस्था में मूल्यों के ह्रास के साथ साथ सभी व्यवसायों में इस निष्टा की कमी और अभाव देखने को मिलेगा। इस प्रकार किसी एक समूचे व्यवसाय को दोष नहीं दिया जा सकता है। इस व्यवसाय में आते जा रहे इन दोषों को समाप्त करने के लिए प्रयास होने चाहिए। ये प्रयास वकीलों के वर्गीय हितों की रक्षा के लिए भी आवश्यक हैं इस कारण से ये वकील समुदाय के अंदर से हों तो ही सफल हो सकते हैं। इस के लिए स्वयं वकीलों की संस्थाओं को ही काम करना होग। वकीलों की सब से बड़ी संस्थाऐं भारत की बार काउंसिल और प्रान्तों की बार काउंसिलें हैं। वे वकीलों के मतों से चुनी जाती हैं। लेकिन वे कानून द्वारा स्थापित संस्थाऐं हैं जो निर्धारित ढांचे में, निर्धारित तरीकों से काम करती हैं, वे वकीलों की ट्रेड यूनियनें अथवा स्वैच्छिक संस्थाऐं नहीं है जो इस काम को कर सकें। वकीलों की स्वैच्छिक संस्थाऐं बहुत कम है और उन का दायरा अत्यन्त संकुचित है। वकीलों के वर्गीय हितों के लिए काम करने वाली संस्थाऐं हैं ही नहीं। इस कारण से बार काउंसिल के अतिरिक्त भी वकीलों के स्वैच्छिक संगठन बनाने होंगे। इस कार्य में राज्य को भी प्रोत्साहन करना होगा। तभी न्याय प्रणाली पर से लोगों का विश्वास उठने से बचाया जा सकेगा।