कल के आलेख न्यायालयों की श्रेणियाँ और उन में न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ पर सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की टिप्पणी थी कि “इसमें परिवार न्यायालयों, उपभोक्ता फोरम व विविध ट्रिब्यूनल्स के बारे मे भी बता दें तो अच्छा रहेगा”। लेकिन मैं उस से पहले यह बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि आखिर इतने सारे भाँति-भाँति के न्यायालयों की आवश्यकता क्या है? और है भी या नहीं? किसी भी देश की न्याय प्रणाली के लिए दो ही तरह के दीवानी और अपराधिक न्यायालय पर्याप्त हैं। एक तरह के न्यायालय अपराधों की रोकथाम के लिए तथा दूसरे तरह के न्यायालय सामाजिक व्यवहार को बनाए रखने के लिए। इन के माध्यम से सभी प्रकार के मामलों का निपटारा किया जा कर समाज में न्यायपूर्ण व्यवहार को स्थापित किया जा सकता है और उसे बनाए रखा जा सकता है।
किसी शरीर को चलाने के लिए यह आवश्यक है कि उसे उस की आवश्यकतानुसार आवश्यक खुराक मिलती रहे। यदि पर्याप्त खुराक न मिले तो शरीर कुपोषण का शिकार हो जाता है और फिर अनेक प्रकार के संक्रमण उसे घेर लेते हैं। तब इन संक्रमणों के लिए अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियाँ विकसित होने लगती हैं। हमारी न्याय व्यवस्था की स्थिति ऐसी ही है। हमारी न्याय व्यवस्था कभी भी आवश्यकता के अनुरूप नहीं रही है, अपितु उस का आकार जितना होना चाहिए उस का चौथाई भी नहीं है। यह बात अनेक बार इस ब्लाग पर कही जा चुकी है। हमें दस लाख की आबादी पर कम से कम पचास अधीनस्थ न्यायालय चाहिए। आबादी के ताजा आँकड़ों 121 करोड़ के लिए हमें देश में 65000 अधीनस्थ न्यायालयों की आवश्यकता है लेकिन हमारे पास वर्तमान में 15000 न्यायालय भी नहीं हैं। हम हरदम अपनी तुलना अमरीका से करना चाहते हैं, लेकिन उन के पास 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं और ब्रिटेन में 55 न्यायालय।
जब पर्याप्त संख्या में न्यायालय नहीं हैं तो हर क्षेत्र में अन्याय की उपस्थिति और उस से निपटने का अभाव दिखाई देता है। वैसी स्थिति में सरकारें जहाँ भी वस्त्र फटा हुआ दिखाई देता है वहीं पैबंद लगाने की कोशिश करती है। श्रमिकों के साथ अन्याय है तो श्रम-न्यायालय स्थापित कर दिए गए। अनुसूचित जाति के लोगों के साथ अन्याय है तो उन के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना कर दी गई। वैवाहिक और पारिवारिक मामलों में जल्दी निर्णय नहीं हो रहे हैं तो पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना कर दी गई। चैक बाउंस के मामले बढ़ गए तो उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित कर दिए गए। मकान मालिक-किराएदारों के विवादों के लिए, टैक्स न चुकाने के मामलों के लिए, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के कर्जों के मामलों के लिए, उपभोक्ता मामलों के लिए, भ्रष्टाचार के मामलों आदि के लिए अलग अलग न्यायालय स्थापित कर दिए गए। लेकिन इन सब की उत्पत्ति का कारण एक ही है कि हमारी सामान्य दीवानी और अपराधिक न्याय व्यवस्था पर्याप्त नहीं है।
विशेष रुप से स्थापित किए गए इन न्यायालयों की प्रकृति या तो दीवानी है या फिर अपराधिक। इन की प्रक्रिया भी या तो दीवानी है या फिर अपराधिक। इन सभी न्यायालयों के निर्णयों की अपील या पुनरीक्षण उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय कर सकता है। जब सारे प्रकार के मामले उच्च न्यायालय कर सकता है तो फिर केवल दीवानी और अपराधिक न्यायालयों से ही न्याय की स्थापना की जा सकती है। इस से यह स्पष्ट है कि ये न्यायालय केवल यह संतुष्टि प्रदान करने के लिए हैं कि जनता यह महसू