बाल विवाहों का अनिवार्य परिणाम यह सामने आया कि विवाह संबंधी विवादों में भारी वृद्धि हुई। कुछ भी होता है कि लड़की को पिता के घर रोक लिया जाता है, और फिर धारा 125 दं.प्र.सं. में भरणपोषण के मुकदमे से विवाद का अदालत में आरंभ हो जाता है। अब तो अनेक माध्यम हैं जिन के जरिए अदालत जाया जा सकता है। दं.प्र.सं. के अतिरिक्त घरेलू हिंसा अधिनियम और हिन्दू विवाह अधिनियम के प्रावधानों का सहारा लिया जा रहा है। इस से पहले से ही मुकदमों से अटी अदालतों में मुकदमों की संख्या और बढ़ी है। कानून के अंतर्विरोध भी इस का कारण बने हैं। सब से बड़ा अंतर्विरोध है कि हिन्दू विवाह अधिनियम में किसी भी बाल विवाह को अवैध नहीं माना जाता। एक बार संपन्न हो जाने के उपरांत विवाह वैध हो जाता है और उसे बाल विवाह होने के कारण अवैध, अकृत, या शून्य घोषित नहीं किया जा सकता है।
एक और तो यह स्थिति है, दूसरी और बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम ने बाल विवाह को अपराधिक कृत्य बनाया हुआ है और सजाओं का प्रावधान किया है, इसे विधि की विडम्बना कहा जाए या फिर विधायिका द्वारा निर्मित विधियों से विधिशास्त्र में उत्पन्न किया गया अंतर्विरोध। बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम में 18 से कम आयु की स्त्री और 21 वर्ष से कम आयु के पुरुष के विवाह को वर्जित घोषित किया गया है और ऐसा विवाह करने वाले 18 से अधिक और 21 वर्ष से कम आयु के और उस से अधिक आयु के लड़के को अलग अलग दंडों का भागी घोषित किया गया है। इसी विवाह को कराने वाले पुरोहित और माता-पिता के लिए भी दंडों का विधान किया गया है। इस तरह एक ऐसा कृत्य जिस को करने और कराने वाले वयस्क व्यक्तियों को अपराधी कहा गया है उसी कृत्य के परिणाम विवाह को वैध करार दिया गया है। हिन्दू विवाह और अन्य किसी भी व्यक्तिगत विधि के अंतर्गत संपन्न बाल विवाह को हर स्थिति में वैध माना गया है। ऐसे विवाह से उत्पन्न संतानों को वही अधिकार प्राप्त हैं जो कि अन्य विवाहों से उत्पन्न संतानों को प्राप्त हैं।