जनता के संगठनों को सामने आना होगा
‘तीसरा खंबा’ अपने जन्म से ही लगातार इस तथ्य की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित कर रहा है कि भारतीय न्यायपालिका की सबसे बड़ी और गंभीर समस्या इस का छोटा होना है। इसे भारतीय जन-गण का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि इस देश की न्याय पालिका का आकार देश की आवश्यकताओं के अनुसार तय नहीं होता है अपितु केन्द्र और राज्य सरकारों की इच्छा के अनुसार निश्चित होता है। जिस का मतलब यह हुआ कि सत्तासीन दल यह तय करेगा कि न्यायपालिका का आकार क्या हो?
हमारे यहाँ सत्ता में आए राजनीतिक दलों और उन के शीर्ष कर्ताधर्ताओं की नीयत के बारे में किसी को कोई शक की गुंजाइश अब नहीं रह गई है कि वे देश और जनता की आवश्यकता के बारे में तभी सोचते हैं जब कि उन के सामने कोई बड़ा जन-आंदोलन खड़ा हो और जिसे दबाने या कुचलने की गुँजाइश पूरी तरह समाप्त हो गई हो। वे सामान्य तौर पर अपने और अपने दल के हितों से ही देश को संचालित करते रहे हैं। अब न्याय की जरुरत हमेशा उसे होती है जिस के साथ अन्याय हो रहा है जो कमजोर है। शक्ति संपन्न को न्याय की आवश्यकता नहीं होती। क्यों कि वह खुद ही तो अन्याय करने वाला है। राजनैतिक दलों और व्यक्तियों के विरुद्ध जब भी कुछ न्याय पालिका के पास निर्णय के लिए पहुँचता है तो उन की चाहत यही होती है कि न्याय जितने विलम्ब से हो उतना अच्छा। इस कारण से उन की चाहत भी यही रहेगी कि अदालतें संख्या में कम हों और न्याय में जितनी देरी से हो सकती हो होती रहे। वे क्यों अदालतों की संख्या बढ़ाने में रुचि लेने लगे।
आप अदालत चिट्ठे के इस समाचार (क़ानून मंत्री अदालतों की संख्या बढ़ाने के खिलाफ!?) को पढ़ें तो आप को राजनितिज्ञों की नीयत का पता लग जाएगा। हरियाणा को पृथक राज्य का दर्जा प्राप्त हुए दशक बीत चुके हैं लेकिन आज तक उसे अपना उच्च न्यायालय नसीब नहीं हुआ। खुद इस के लिए माँग उठाने वाले जब कानून मंत्री बन जाते हैं तो कहने लगते हैं- (कोई जरूरत नहीं है हाईकोर्ट की: क़ानून मंत्री)
हमारी न्यायपालिका के मुखिया (मुख्य न्यायाधीश) अब तक तो दबी जुबान से ही कहा करते थे कि हमारे यहाँ न्यायालयों की संख्या कम है। लेकिन अब जब कि न्याय में देरी को सीधे-सीधे न्यायपालिका और न्यायाधीशों को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा है तो उन्हें भी अपनी बात को खुल कर कहना पड़ रहा है। अदालत की इस पोस्ट को देखिए- (देश में और ज्यादा अदालतों की जरूरत : मुख्य न्यायाधीश)
हालाँकि न्यायपालिका खुद भी मुकदमों के बोझे से इतनी दबी है कि वह कभी जनता से भी गुहार करती है कि- (जनता ख़ुद समस्याएं सुलझाए, कोर्ट हर समस्या का हल नहीं: सुप्रीमकोर्ट) और (अदालतों के चक्कर लगाने से बचिए: मुख्य न्यायाधीश)
अंत में इस समाचार को भी देखिए-(वो मारा!: आपसी मुकद्दमा? समझौता कीजिए)
अब तो आप सहमत होंगे कि हमारी सरकारे और राजनेता नहीं चाहते कि आप को यानी जनता को न्याय मिले। लेकिन केवल सहमत होने से काम नहीं चल सकता। इस मामले में जनता के बीच जागरुकता उत्पन्न करनी होगी। जनता को जाग्रत करने का काम नेताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। जनता के संगठनों को सामने आना होगा।