ब्रिटिश सम्प्रभुता के क्षेत्रों के लिए ब्रिटिश सम्राट को ही न्याय का उच्चतम स्रोत माना जाता है। इसी कारण से ब्रिटिश सम्राट को उच्चतम अपील न्यायालय के रूप में मान्य किए जाने की परंपरा विद्यमान है। ब्रिटिश सम्राट उन के समक्ष प्रस्तुत याचिकाओं को अपनी कौंसिल के सहायता से निर्णीत करते हैं। यह कौंसिल ही किंग-इन-कौंसिल या प्रिवी कौंसिल के नाम से जानी जाती रही है। प्रिवि कौंसिल का इतिहास 1066 नॉर्मन जाति की इंग्लेंड पर विजय के साथ आरंभ हुआ था। तब सारे प्रशासन का केंद्रीकरण राजा में हो गया था। राजा ने प्रशानिक कार्यों के लिए एक विशाल सामन्ती निकाय की रचना की थी जो ‘मैंग्नम’ या कॉमन काउन्सिलियम कहलाती थी। जिस की सदस्यता का आधार सामन्ती प्रथाएँ थी। लेकिन बाद में भू-स्वामित्व की शर्त अनिवार्य हो जाने पर केवल सामंत ही इस के सदस्य हो सकते थे। मैग्नम काउन्सिलियस ही हाउस ऑफ लॉर्डस् के रूप में विकसित हुई, यही इंग्लेंड का सर्वोच्च अपील न्यायालय बनी। मैग्नम काउन्सिलियस अधिक उपयोगी सिद्ध न होने पर सम्राट हेनरी प्रथम ने क्यूरिया रेजिस नाम की एक छोटी संस्था गठित की गई जिस में चुने हुए शासकीय सदस्य ही हुआ करते थे। धीरे-धीरे इस संस्था ने प्रशासन और न्याय के क्षेत्र में महत्व प्राप्त कर लिया। इसी से चांसरी कोर्ट, किंग्स कोर्ट, प्रिवी कौंसिल आदि संस्थाओं का उदय हुआ। प्रिवी कौंसिल में प्रारंभ में 12 सदस्य थे बाद में इन की संख्या बढ़ती गई, लेकिन 1679 में इस की संख्या 30 तक सीमित कर दी गई।
आरंभ में प्रिवी कोंसिल की अधिकारिता सीमित थी। किन्तु जैसे जैसे ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार होता गया वैसे-वैसे उस का क्षेत्र भी व्यापक होता गया। ब्रिटिश उपनिवेशों की प्रजा को भी ब्रिटिश प्रजा माने जाने के कारण सम्राट उन को उन की याचिकाएँ सुनने का अधिकार भी था। इन याचिकाओं का निर्णय सम्राट प्रिवी कौंसिल की सलाह से करता था।पहले प्रिवी कौंसिल के सदस्य विधि में दक्ष व्यक्ति नहीं होते थे लेकिन 1833
के अधिनियम से प्रिवी कौंसिल में विधिवेत्ताओं का प्रवेश होने लगा।
ब्रिटिश प्रिवि कौंसिल |
ब्रिटिश संसद में 1833 में पारित न्यायिक समिति अधिनियम से प्रिवी कौंसिल की एक स्थाई समिति का गठन किया गया। जिसे उपनिवेशों से आने वाली अपीलों की सुनवाई का काम सौंपा गया। इस समिति का अध्यक्ष कोई लॉर्ड चांसलर होता था तथा अन्य सदस्य. उच्च न्यायिक अधिकारी होते थे। इस समिति की बैठक की गणपूर्ति के लिए चार सदस्य होना आवश्यक था। 1844 में यह संख्या घटा कर तीन कर दी गई तथा समिति में उपनिवेश देशों के दो सदस्यों को स्थान दिया गया। ये सदस्य उस देश की विधि के सम्बन्ध में परामर्श दे सकते थे। 1895 में उपनिवेश देशों के प्रतिनिधियों की संख्या 5 और 1913 में 7 कर दी गई।
1833 के अधिनियम में यह व्यवस्था की गई थी कि किसी प्रथा, संविधि या अन्य किसी विधि के अधीन किसी भी न्यायालय के किसी भी आदेश की अपील ब्रिटिश सम्राट या किंग-इन-कौंसिल के समक्ष प्रस्तुत की जा सकती थी। जहाँ से यह समिति को सुनवाई के लिए भेजी जाती थी। समिति सुनवाई कर के अपनी रिपोर्ट सम्राट को निर्णय के लिए प्रेषित कर देती थी। अंतिम निर्णय ब्रिटिश सम्राट का ही होता था। आरंभ में प्रिवि
कौंसिल की कृपा पर ही अपील किए जाने की व्यवस्था थी। लेकिन बाद में नियम बन जाने पर विशेष अनुमति से अपील प्रस्तुत की जा सकती थी।
कौंसिल की कृपा पर ही अपील किए जाने की व्यवस्था थी। लेकिन बाद में नियम बन जाने पर विशेष अनुमति से अपील प्रस्तुत की जा सकती थी।