भारत में न्यायार्थियों को शीघ्र न्याय दिलाने और अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कम करने के लिए अदालतों की संख्या बढ़ाने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय शेष नहीं रह गया है। सुप्रीम कोर्ट में लंबित मुकदमों की संख्या फिर से 50,000 से ऊपर पहुँच चुकी है। सुप्रीम कोर्ट में 1990 में एक लाख से भी अधिक मुकदमे लंबित थे। लेकिन कम्प्यूटरों और सूचना तकनीक का उपयोग कर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुकदमों के निस्तारण की क्षमता को बढ़ाया और लंबित मुकदमों की संख्या घट कर मात्र 20,000 हो गई थी। लेकिन अधिक मुकदमे दायर होने के कारण यह फिर से बढ़ने लगी और 2006 से तो इस की गति बहुत तीव्र हो गई। जब कि सुप्रीम कोर्ट अपनी पूर्ण गति से काम कर रहा है। वहाँ एक पीठ 80 मुकदमों की प्रतिदन सुनवाई कर रही है।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष जनवरी 2006 में 34649 मुकदमे लंबित थे जो जनवरी 2007 में बढ़ कर 39,780 हो गए। तभी के.जी. बालाकृष्णन मुख्यन्यायाधीश बने और उन्हों ने लंबित मुकदमों की संख्या को कम करने के हर संभव प्रयास किए। इस के बावजूद भी लंबित मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती रही। जनवरी 2008 में यह 46,926 और जनवरी 2009 में यह 49,819 हो गई थी। मार्च 2009 के अंत में यह संख्या 50,163 हो गई।
यही हाल देश के उच्च न्यायालयों का है। देश के 21 उच्च न्यायालयों में 886 जजों के पदों पर 635 जज काम कर रहे हैं। इन उच्चन्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या जो जनवरी 2008 में 37.4 लाख थी जनवरी 2009 में बढ़ कर 38.7 लाख हो गई है।
निचली अदालतों में जजों के 16685 पद स्वीकृत हैं जिन के स्थान पर 13556 जज काम कर रहे हैं। 3131 जजों के पद रिक्त पड़े हैं। इन अदालतों में मुकदमों की संख्या जनवरी 2008 में 2.54 करोड़ थी जो अब बढ़ कर 2.64 करोड़ हो गई है।
इन्हीं कारणों से भारत के मुख्य न्यायाधीश राज्य सरकारों से बार-बार अनुऱोध कर रहे हैं कि उन्हें निचली अदालतों में लम्बित मुकदमों के समय पर निस्तारण के लिए 10,000 और जजों की जरूरत है।
न्याय व्यवस्था की इस अवस्था में सुधार के लिए जजों और अदालतों की संख्या में वृद्धि के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं रह गया है।