सलीम ने शहडोल, मध्यप्रदेश से समस्या भेजी है कि-
मैं अपनी पत्नी को तलाक़ देना चाहता हूँ, हमारा रिश्ता नहीं चल पा रहा है। अगर मैं कॉल कर के उस को तलाक़ ३ बार बोल दूँ तो क्या हमारा तलाक़ हो जाएगा या मैसेज करूँ? उस के बाद उस के क्या हक़ हैं? और मेरे क्या हक़ हैं?
समाधान-
मुस्लिम विधि में तिहरे तलाक़ की व्यवस्था है। इस का आधार कुऱआन है। लेकिन इस तलाक़ की व्याख्या अनेक बार हुई है। आम धारणा यह है कि यदि पति तीन बार पत्नी को तलाक कह दे या लिख कर दे दे तो तलाक़ सम्पन्न हो जाता है। पर यह धारणा गलत है।
भारत में तलाक़ को यदि पत्नी द्वारा या अन्य किसी व्यक्ति द्वारा न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जाए तो हमेशा पति को न्यायालय में यह साबित करना पड़ता है कि उस ने अपनी पत्नी को जो तलाक़ दिया है वह विधि के अनुरूप है।
पाकिस्तान में 1961 में तलाक़ के सम्बन्ध में एक अध्यादेश Muslim Family Laws Ordinance, 1961 पारित किया गया जो पाकिस्तान व वर्तमान बंगलादेश में प्रभावी हैं। उस की धारा-7 के प्रावधान निम्न प्रकार हैं-
- कोई भी पुरुष जो अपनी पत्नी को तलाक देना चाहता है, जैसे ही किसी भी रूप में तलाक़ की घोषणा करता है, (बेसिक डेमोक्रेटिक ऑर्डर, 1959 के अनुसार गठित यूनियन कौंसिल के) चेयरमेन को लिखित में नोटिस देगा और उस की एक प्रति अपनी पत्नी को भेजेगा।
- जो उपधारा 1 का उल्लंघन करेगा वह एक वर्ष के साधारण कारावास से या पाँच हजार रुपए के अर्थदण्ड से या दोनों से दण्डित किया जा सकेगा।
- उपधारा 5 के अतिरिक्त यदि तलाक़ किसी भी प्रकार से पहले वापस नहीं लिया गया हो तो चेयरमेन को नोटिस प्राप्त होने के 90 दिनों की समाप्ति के पूर्व प्रभावी नहीं होगा।
- चेयरमेन तलाक़ का नोटिस प्राप्त होने के 30 दिनों की अवधि में दोनों पक्षों के मध्य पुनर्विचार हेतु एक समझौता समिति गठित करेगा जो दोनों पक्षों के मध्य पुनर्विचार की कार्यवाही करगी।
- यदि पत्नी तलाक की घोषणा होने के समय गर्भधारण काल में हो तो उपधारा 3 में वर्णित अवधि या गर्भकाल तक जो भी बाद में समाप्त हो तलाक प्रभावी नहीं होगा।
इस अध्यादेश से यह स्पष्ट है कि कुऱआन की व्यवस्था यही है कि एक ही समय में किसी भी विधि से तीन बार तलाक़ दे देने मात्र से तलाक़ नहीं हो सकता। तलाक़ के पहले कथन व अन्तिम कथन के मध्य दोनों पक्षों में विवाह को बचाए जाने के लिए समझाइश होनी चाहिए।
वर्तमान में भारतीय न्यायालय भी इसी सिद्धान्त की पालना करते हैं। भारत के उच्चतम न्यायालय ने शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मुकदमे में गौहाटी उच्च न्यायालय द्वारा रुकैया ख़ातून [Rukia Khatun Vs. Abdul Khalique Laskar, (1981) 1 GLR 375] के मामले में दिए गए निर्णय और व्याख्या को सर्वाधिक उचित बताया है। जिस में कहा गया है कि तलाक़ में दो बातें होना जरूरी हैं। (1) तलाक़ किसी उचित कारण से दिया गया हो, (2) तलाक़ के पहले एक समझौता परिषद द्वारा जिस में एक प्रतिनिधि पति पक्ष से तथा दूसरा प्रतिनिधि पत्नी पक्ष से हो समझैता संपन्न कराने की वास्तविक कोशिश होनी चाहिए और इस कोशिश के असफल होने पर ही तलाक प्रभावी होना चाहिए।
इस तरह आप समझ सकते हैं कि मुहँ से सामने या फोन पर तीन बार तलाक़ बोल देने या तीन बार एसएमएस कर देने मात्र से यह तिहरा तलाक संपन्न नहीं होगा। कोई भी भारतीय न्यायालय ऐसे तलाक़ को वैध नहीं मानेगी और उस स्त्री को पत्नी ही माना जाएगा।
यदि आप को तलाक देना है तो उस के लिए कोई उचित कारण होना चाहिए जो प्रदर्शित किया गया हो और एक समझौता परिषद द्वारा जिस में आप का और आप की पत्नी का प्रतिनिधि हो जिन्हें लिखित रूप में दोनों द्वारा नियुक्त किया गया हो और गवाहों के हस्ताक्षर हों, और इस समझौता परिषद के दोनों व्यक्तियों ने समझौते के वास्तविक प्रयास करने के उपरान्त लिखित में दे दिया हो कि उन के प्रयास असफल रहे हैं। तभी आप तीसरा तलाक कह सकते हैं और उसे विधि पूर्वक तलाक माना जाएगा।
विधिपूर्वक तलाक हो जाने के उपरान्त पति के पास पत्नी के प्रति कोई अधिकार नहीं रह जाता है। पत्नी इद्दत की अवधि में पति से अपने भरण पोषण प्राप्त कर सकती है। भारत में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 पत्नी, बच्चों व माता पिता के भरण पोषण के दायित्व के सम्बन्ध में है। उच्चतम न्यायालय का निर्णय है कि तलाक़शुदा पत्नी जब तक दूसरा विवाह नहीं कर लेती है तब तक उस की अपनी और अपने पूर्व पति की हैसियत के मुताबिक भरण पोषण की राशि प्रति माह प्राप्त कर सकती है।