साल का आखिरी दिन है, और अपने पाठकों और मित्रों से कानून की बात नहीं, व्यवहार की बात करना चाहता हूँ। यह ब्लाग विधि और न्याय प्रणाली से संबद्ध है तो बात उसी से संबद्ध अवश्य है।
बहस हो गई, मैं बहस से संतुष्ट भी था। सोचता था फैसला शत-प्रतिशत मेरे ही हक में होगा। लेकिन हुआ वह, जिस की संभावना लेश मात्र भी नहीं थी। हम मुकदमा हार गए। मुझे बहुत परेशानी हुई। हुआ यह था कि उस मुकदमे में एक कानूनी बिंदु ऐसा था जिस पर मुकदमा टिका हुआ था। मैं ने बहुत कोशिश की थी कि उस बिंदु का महत्व जज साहब को समझ आ जाए। लेकिन मेरी कोशिश कामयाब न हो सकी। मैं ने सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय उस संबंध में उन्हें बताया भी था जो कि उस महत्वपूर्ण बिंदु पर रोशनी डालता था। मेरी समझ में एक ही बात आई कि जज साहब ने और सब बातों पर ध्यान दिया लेकिन उन्हों ने वह निर्णय जो मैं ने संदर्भ के लिए प्रस्तुत किया था उसे पढ़ा नहीं। हालांकि जज साहब ने यह अवश्य लिखा था कि वह निर्णय इस प्रकरण पर चस्पा नहीं होता। जज साहब की ईमानदारी और योग्यता संदेह के परे थी। बस यही एक बात थी जो चुभ रही थी कि जज साहब ने बहस के वक्त पर्याप्त ध्यान नहीं दिया और मनोगत रीति से फैसला दे दिया।
मेरे मुवक्किल के पास यह उपचार था कि वह उच्च न्यायालय में निर्णय के विरुद्ध रिट याचिका प्रस्तुत करे। लेकिन मुझे यह भय सता रहा था कि मेरे मुवक्किल तो गरीब मजदूर होते हैं। वे उच्च न्यायालय में अपने मामले का प्रतिवाद तो कर सकते हैं। लेकिन निचले न्यायालय से मुकदमा हार जाने के बाद उन के लिए उच्चन्यायालय में उसे चुनौती देना व्यवहारिक रूप में दुष्कर होता है। हार जाने से उन में हताशा जागती है, लड़ने के लिए पैसा भी चाहिए, उच्च न्यायालय में भी दस-पाँच साल के बिना फैसला नहीं होता। मैं ने सोचा कि यदि ये जज साहब इसी तरह फैसले देते रहे तो बहुत से लोगों का इसी तरह कल्याण हो जाएगा। आखिर मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि जज साहब से बात करनी होगी। अक्सर किसी जज से फैसले के बारे में फैसले के बाद बात करने पर वे यही कहते हैं कि उन्हों ने जो किया वह ठीक किया। यदि आपत्ति है तो आप आगे के न्यायालय में उसे चुनौती दे दें। फिर भी मैं ने बात करना उचित समझा।
-कहिए, और बिलकुल न झिझकिए। जज