स्वतंत्र भारत में शासन के कार्यों में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से चिरप्रतीक्षित “सूचना का अधिकार कानून” का दिनांक 21.06.05 को अधिनियमिन किया गयाहै। अधिनियम की धारा 4 में यह प्रावधान किया गया कि लोक प्राधिकारी 120 दिन के भीतर अपने यहाँ रखे जाने वाले रिकार्ड का सूचीपत्र एवं अनुक्रमणिका तैयार करेंगे और कुछ विहित सूचनाओं का स्थानीय भाषा में स्वतः प्रकाशन करेंगे। किन्तु अधिकांश लोक प्राधिकारियों ने इस प्रावधान की अनुपालना सात वर्ष व्यतीत होने के बावजूद अभी तक नहीं की है। अधिनियम की धारा 6 में यह प्रावधान किया गया है कि सूचना के लिए लिखित में अथवा इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन किया जा सकता है। आवेदन हेतु सामान्यतया 10 रुपये शुल्क निर्धारित है। यद्यपि कुछ मामलों में कुछ लोक प्राधिकारियों ने यह शुल्क मनमाने रूप में 500 रुपये तक निर्धारित कर रखा है।
अधिनियम में इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन का प्रावधान है, किन्तु सरकारी विभागों की स्थिति यह है कि अधिकांश विभागों/कार्यालयों में ईमेल बॉक्स खोला ही नहीं जाता है, या ई-मेल से प्राप्त डाक पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता, कई बार तो फ़िल्टर तक लगा लिया जाता है ताकि उनके लिए अवांछनीय डाक उनके मेल बॉक्स में आ ही नहीं पाए। इस पर इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन करने पर शुल्क भुगतान करने के लिए कोई इलेक्ट्रोनिक माध्यम का विकल्प जनता को उपलब्ध ही नहीं करवा रखा है, जिससे आवेदकों को शुल्क का भुगतान डाक से ही करना पडता है। शुल्क भुगतान से पूर्व आवेदन पर विचार नहीं किया जाता है जिस से भारत में इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन का प्रावधान दिखावटी मात्र रह गया है।
अमेरिका में भी भारतीय कानून के समान ही सूचना स्वातंत्र्य कानून 1966 से बना हुआ है। अमेरिका में सूचना के लिए आवेदन हेतु कोई शुल्क निर्धारित नहीं है वहीं इलेक्ट्रोनिक माध्यम से भी आवेदन किया जा सकता है। भारत में सरकार ने संभवतया नौकरशाही के दबाव में इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन के प्रावधान को एक ओर निष्क्रिय रखा है वहीं दूसरी ओर आवेदन हेतु शुल्क भुगतान की शर्त रख दी ताकि कम से कम लोग इस अधिकार का प्रयोग कर सकें। सरकार को यह अंदेशा है कि यदि निशुल्क आवेदन और इलेक्ट्रोनिक माध्यम से आवेदन का प्रावधान कर दिया गया तो आवेदनों की संख्या बढ़ जायेगी। किन्तु सरकार की यह धारणा निर्मूल है क्योंकि अमेरिका में कुल जनसंख्या का 80% इन्टरनेट उपयोगकर्ता है वहीं भारत में मात्र 8% लोग ही इन्टरनेट का उपयोग करते हैं। यदि सरकारी मशीनरी इन्टरनेट से प्राप्त आवेदनों का इन्टरनेट से निपटान सूचित करे तो कार्य में शीघ्रता तो आयेगी ही साथ ही साथ यह नागरिकों और सरकार दोनों के लिए भी मितव्ययी रहेगा और अधिनियम का सही प्रवर्तन संभव हो सकता है। यह भी ध्यान देने योग्य है अक्सर नागरिक सूचना के लिए तभी आवेदन करते हैं जब उन्हें लोक प्राधिकारी के कार्यों में अस्वच्छता का अंदेशा हो। अस्वच्छता के अंदेशे के बिना आवेदन के प्रकरण अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अतः सरकार को चाहिए कि वह अधिनियम के अंतर्गत आवेदन शुल्क के प्रावधान को हटा दे। यदि सरकार सभी आवेदनों के लिए शुल्क हटाना उचित नहीं समझती तो भी कम से कम ईमेल से प्राप्त आवेदनों को तो शुल्क मुक्त कर ही देना चाहिए और साथ में यह प्रावधान करना चाहिए कि ईमेल से प्राप्त आवेदनों का यथा संभव ईमेल से ही जवाब दिया जायेगा। यद्यपि अधिनियम में आवेदक को सूचना प्रेषित करने का माध्यम स्पष्ट नहीं कर रखा है किन्तु सामान्य उपबंध अधिनियम (General Clauses Act) 1897 की धारा 27 के प्रभाव से ये सूचनाएँ पंजीकृत डाक से ही भेजी जानी हैं। इस व्यवस्था से सरकार को भी यह लाभ होगा कि प्रत्येक आवेदन पर आवेदक को शुल्क जमा करने की सूचना भेजने, और तत्पश्चात सूचना भेजने पर होने वाले 50 रुपए डाक व्यय की बचत होगी।
वास्तव में भारत के सन्दर्भ में शासन की कार्यप्रणाली पर नौकरशाही अपनी पकड़ को शिथिल करने, और लालफीताशाही से जनता को मुक्त करने को तैयार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में इफाइलिंग प्रणाली 01.10.2006 को प्रारम्भ की गयी थी किन्तु अभी तक वहाँ 0.01% मामलों में ही इसका उपयोग हो रहा है और वह भी दूर बैठे नागरिकों द्वारा। पेशेवर वकील अभी भी इफाइलिंग प्रणाली को परेशानी भरा रास्ता समझते हैं, तथा
सूचना के अधिकार कानून के बारे में कांग्रेस का दावा है कि यह उस की देन है। लेकिन इस कानून के लिए कितना आंदोलन समाज सेवा में जुटे लोगों को करना पड़ा यह एक इतिहास है। सूचना के अधिकार कानून जिस तरह भारत में प्रभावी हुआ है उस तरह यह भी अन्य कानूनों की तरह नौकरशाही का शिकार हो गया है जिस के कारण उस का पूरा लाभ जनता को प्राप्त नहीं हो रहा है। यथार्थ में इस कानून के साथ क्या हुआ है यह जानिए एडवोकेट मनीराम शर्मा के इस आलेख से … |
इसके प्रयोग से दूर हैं। ठीक इसी प्रकार हमारे केन्द्रीय सूचना आयोग में इफाईलिंग प्रणाली दिखावटी तौर पर प्रारंभ कर दी गयी किन्तु हार्ड कॉपी आने से पूर्व उस पर कोई विचार नहीं किया जाता है। इस प्रकार देश के नौकरशाह विधायिका के कानूनों की धार को भोंथरा करने में संलग्न हैं और हमारी चुनी गयी सरकारें भी वास्तव में जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता की सरकारें नहीं हैं तथा देश में लोकतंत्र पर नौकरशाही आज भी भारी पड़ रही है। नागरिकों को अपने अधिकारों के लिए अपने ही सेवकों के सामने गिडगिडाना पड़ता है और फिर भी वे न्याय से वंचित हैं- विवाद बढ़ते जा रहे हैं। भारत में नियमों और प्रक्रिया में ऐसे गड्ढे बना कर छोड़े जाते हैं, जिन में लोग लड़खड़ा कर गिरते रहते हैं।