राजस्थान का बजट आ चुका है। उस की आलोचना भी हो रही है और तारीफ भी। तीसरा खंबा ने अर्जुन की आंख की तरह केवल यह तलाशना आरंभ किया कि न्याय व्यवस्था के लिए इस में क्या है? इस ने मुझे बहुत निराश किया। यह बजट राज्य के न्यायार्थियों के लिए बहुत ही निराशाजनक है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्यन्यायाधीश ने पिछले दिनों राज्यसरकारों से अपील की थी कि उन्हें देश में तुरंत दस हजार (10000) अधीनस्थ न्यायालय चाहिए वरना देश की न्याय व्यवस्था को बचा पाना असंभव हो जाएगा। इस अपील के बाद यह आशा की जाती थी कि राज्य सरकार राजस्थान में कम से कम 100 नयी अदालतें स्थापित करने के लिए बजट में प्रावधान करेगी। लेकिन जब बजट सामने आया तो उस से पूरी तरह निराशा हुई है कि राज्य सरकार प्रदेश को न्याय दिलाने के मामले में पूरी तरह उदासीन है।
आज राजस्थान में हालात यह हैं कि मजिस्ट्रेट स्तर की अदालतों में 50 प्रतिशत से अधिक फौजदारी मामले केवल धारा 138 परक्राम्य विलेख अधिनियम के ही हैं। अधिकांश अदालतों में दो हजार से चार हजार या उस से भी अधिक मुकदमे लम्बित हैं। प्रत्येक अदालत के पास फौजदारी के साथ ही दीवानी मुकदमे भी होते हैं। मुकदमों के इस अम्बार को निपटाने के लिए तुरंत अदालतों की संख्या को दुगना किया जाना आवश्यक है। दीवानी मुकदमे जो दो वर्ष में एक अदालत से निर्णीत हो जाने चाहिए, वे बीस-बीस वर्ष ले रहे हैं। जो पीढ़ी मुकदमा लगाती है निर्णय उस से अगली पीढ़ी ही देख पाती है। फौजदारी मुकदमों में देरी के कारण अपराधियों को सजा नहीं हो पाती और समाज में अपराध दर लगातार बढ़ रही है। यदि नई अदालतें नहीं खुलती हैं तो उस का परिणाम समाज के लिए यह होगा कि लोग अपने विवादों को सड़कों पर बाहुबल से निपटाने लगेंगे और समाज अराजकता की ओर बढ़ेगा।
न्यायालयों में मुकदमों में निर्णय न होने से मुवक्किलों और वकीलों के बीच तथा वकीलों और जजों के बीच असंतोष सीमा के बाहर होता जा रहा है। हाल ही में दिल्ली में एक जज के साथ हुई घटना के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है। अब वह समय है कि नयी अदालतों की स्थापना के लिए जनता राज्य सरकार और केंद्र सरकार के विरुद्ध संघर्ष के मैदान में उतरे। इस विषय पर वकीलों और उन के संगठनों को भी तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। इस विषय को वे ही गंभीरता से समझ सकते हैं और जनता का नेतृत्व कर सकते हैं।