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समस्या-
दिलीप ने इन्दौर मध्यप्रदेश से पूछा है-
दादा ने स्वयं अपनी आय से खरीदी अपनी सम्पत्ति के विक्रय पत्र की रजिस्ट्री पोते के नाम से करा रखी है। अब दादाजी नहीं है, तो क्या वह पैतृक सम्पत्ति कहलाएगी? क्या उसका बंटवारा पैतृक सम्पत्ति मानते हुए दादा जी के अन्य पुत्रों के साथ किया जा सकता है? क्या दादा जी के अन्य पुत्र अथवा पौत्र कानूनी रूप से इसमें अपना हक मांग सकते हैं?
समाधान-
पैतृक सम्पत्ति शब्द अपने आप में बहुत भ्रामक है। इससे ऐसा लगता है कि पिता या उनके पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्ति पैतृक है, जो सही भी है। लेकिन इसका इतना ही अर्थ है। विधिक शब्द है ‘सहदायिक सम्पत्ति’। इसी को लोग सामान्य भाषा में पैतृक कह देते हैं। सहदायिक सम्पत्ति वह सम्पत्ति है जो किसी पुरुष को उसके पिता, दादा या परदादा से विधि के अनुसार उत्तराधिकार में प्राप्त होती है। पिता की मृत्यु हो जाने पर पुत्र हिन्दू विधि के अनुसार अपने पिता की सम्पत्ति या उसमें कोई हिस्सा उत्तराधिकार में प्राप्त करता है। यदि दादा जीवित हो और पिता की मृत्यु हो जाए, या परदादा जीवित हों और पिता और दादा की मृत्यु हो चुकी हो तो एक पुरुष अपने दादा और परदादा की सम्पत्ति या उसमें कोई हिस्सा भी उत्तराधिकार में सीधे प्राप्त करता है। वैसी स्थिति में उस पुरुष को प्राप्त यह सम्पत्ति या उसका हिस्सा सहदायिक कहलाता है। इस तरह एक व्यक्ति द्वारा स्वयं अर्जित की गयी सम्पत्ति सहदायिक सम्पत्ति में परिवर्तित हो जाती है। जो पहले से सहदायिक सम्पत्ति है वह तो सहदायिक रहती ही है। इससे स्पष्ट है कि सहदायिक सम्पत्ति विधि का उत्पाद है कोई चाहे तो अपनी इच्छा से सहदायिक सम्पत्ति नहीं बना सकता।
17 जून 1956 से हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम अस्तित्व में आ गया। जिसमें कहा गया है कि एक हिन्दू पुरुष का उत्तराधिकार उसकी धारा-8 के अनुसार होगा। अर्थात अब एक हिन्दू की सम्पत्ति का उत्तराधिकार केवल उसके पुत्रों को प्राप्त न हो कर पुत्रियों, पत्नी और माता को समान रूप से प्राप्त होगा। अब स्त्रियों को प्राप्त सम्पत्ति तो सहदायिक नहीं हो सकती। इस कारण उसमें से जो हिस्सा पुरुष को प्राप्त होगा वह भी सहदायिक नहीं हो सकता। इस तरह हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम अस्तित्व में आने के बाद से कोई स्वअर्जित सम्पत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त हो कर भी सहदायिक नहीं होती अर्थात उसमें उत्तराधिकारी के पुत्र को जन्म से कोई अधिकार नहीं होता। 17.06.1956 के पहले से जो सम्पत्तियाँ सहदायिक हो चुकी थीं वे ही सहदायिक हैं।
आपके मामले में दादा ने कुछ सम्पत्ति अर्जित की और फिर उसका विक्रय पौत्र को कर दिया। इस तरह वह सम्पत्ति पौत्र को हस्तान्तरित कर दी। विक्रय पत्र से हस्तान्तरण के दिन ही वह सम्पत्ति पौत्र की हो चुकी थी। अब किसी अन्य व्यक्ति का उस सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा दावा करता भी है तो उसका दावा कानूनी नहीं होगा।