इस कानून का उपयोग नियोजकों द्वारा श्रमिकों के विरुद्ध किया जा रहा है। नियोजक अपनी प्रत्येक स्थाई और नियमित प्रकृति की आवश्यकताओं के लिए श्रमिकों को नियोजित करते हैं, उन का चयन स्वयं करते हैं, उन्हें वेतन भी नियोजक का कार्यालय ही देता है और उन के कार्यों पर नियंत्रण भी नियोजक का ही होता है। लेकिन कागजों में उन्हें ठेकेदार का कर्मचारी बताया जाता है। ऐसे श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी तक प्राप्त नहीं होती, यदि वे कानूनी अधिकारों और सुविधाओं की मांग करते हैं तो नियोजक तुरंत कहते हैं कि श्रमिक उन के कर्मचारी न हो कर ठेकेदार के कर्मचारी हैं। विवाद बढ़ता दिखाई देता है तो ठेकेदार का ठेका समाप्त कर दिया जाता है और उस के साथ ही इन श्रमिकों का नियोजन समाप्त हो जाता है।
एक सितंबर 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने भीलवाड़ा दुग्ध उत्पादक सहकारी समिति बनाम विनोद कुमार शर्मा के मामले में निर्णय पारित करते हुए कहा है कि न्यायालय कानून के इस तरह के दुरुपयोग को बर्दाश्त नहीं कर सकता वैश्वीकरण और उदारीकरण के नाम पर मानव शोषण को अनुमति नहीं दी जा सकती। इस मामले में नियोजक द्वारा ठेकेदार के कर्मचारी घोषित किए गए श्रमिकों को मूल उद्योग के कर्मचारी घोषित करते हुए उन्हें मूल उद्योग में मिलने वाली सुविधाएँ दिलाने के श्रम न्यायालय के निर्णय को उचित ठहराया गया है।