गतांक से आगे …
विधी (Personal Law)
लिंग के आधार पर सबसे ज्यादा भेद-भाव Personal Law में दिखाई देता है और इस भेदभाव को दूर करने का सबसे अच्छा तरीका है कि समान सिविल संहिता (Uniform Civil Code) बनाया जाय।
उन्मुक्त जी का यह लेख महिलाओं की अपने अधिकारों की कानूनी लड़ाई के बारे में है। इसमें महिला अधिकार और सशक्तिकरण की चर्चा है। प्रस्तुत है इस की तीसरी कड़ी … |
हमारे संविधान का भाग चार का शीर्षक है – ‘राज्य की नीति के निदेशक तत्व’ (Directive Principles of the State policy)। इसके अंतर्गत रखे गये सिद्धान्त, न्यायालय द्वारा क्रियान्वित (Enforce) नहीं किये जा सकते हैं पर देश को चलाने में उन पर ध्यान रखना आवश्यक है। अनुच्छेद ४४ इसी भाग में है। यह अनुच्छेद कहता है कि हमारे देश में समान सिविल संहिता बनायी जाय पर इस पर पूरी तरह से अमल नहीं हो रहा है।
हमारे संविधान के भाग तीन का शीर्षक है – मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)। इनका क्रियान्वन (enforcement) न्यायालय द्वारा किया जा सकता है। इस समय न्यायपालिका के द्वारा मौलिक अधिकारों और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में संयोजन हो रहा है। न्यायपालिका मौलिक अधिकारों की व्याख्या करते हुये राज्य की नीति के निदेशक तत्वों की सहायता ले रहे हैं। बहुत सारे लोग न्यायालयों को प्रोत्साहित कर रहे हैं कि वह देश में समान सिविल संहिता के लिये बड़ा कदम उठाए। उनके मुताबिक:
- संविधान के अनुच्छेद १३ के अंतर्गत स्वीय विधि (Personal Law) और किसी दूसरे कानून में कोई अन्तर नहीं है। यदि स्वीय विधि (Personal Law) में भेदभाव है तो न्यायालय उसे अनुच्छेद १३ शून्य घोषित कर सकता है।
- स्वीय विधि, संविधान के अनुच्छेद १४ तथा १५ का उल्लंघन करते हैं और उन्हें निष्प्रभावी घोषित किया जाना चाहिये।
- संसद, राजनैतिक कारणों से इस बारे में कोई कानून नहीं बना पा रही है इसलिये न्यायालय को आगे आना चाहिये।
न्यायपालिका ने इस दिशा में एक और कदम Sarla Mudgal Vs. Union of India वा Madhu Kishwar Vs. State of Bihar में उठाया था पर इस कदम को Ahmedabad Women Action Group (AWAG) Vs. Union of India में यह कहते हुये वापस ले लिया कि,
‘ यह सरकार की नीतियों पर निर्भर करता है जिससे सामान्यत: न्यायालय का कोई संबंध नही रहता है। इसका हल कहीं और है न कि न्यायालय के दरवाजे खटखटाने पर।’
न्यायपालिका आगे क्या करेगी? यह तो भविष्य ही बतायेगा पर शायद पहल उन महिलाओं को करनी पड़ेगी जो इस तरह के भेदभाव वाले स्वीय विधि से प्रभावित होती हैं।
यदि न्यायालयों के निर्णयों को आप देंखे तो पायेंगे कि न्यायपालिका किसी भी स्वीय विधि (Personal Law) को निष्प्रभावी घोषित करने में हिचकिचाती है लेकिन उस कानून की व्याख्या करते समय वह महिलाओं के पक्ष में रहता है। यही कारण है कि अपवाद को छोड़कर न्यायालयों ने कानून की व्याख्या करते समय, उसे महिलाओं के पक्ष में परिभाषित किया। इसके लिये चाहे उन्हें कानून के स्वाभाविक अर्थ से हटना पड़े। यह बात सबसे स्पष्ट रूप से Danial Latif Vs Union of India के फैसले से पता चलती है। इस मुकदमे में मुस्लिम स्त्री (विवाह-विच्छेद पर अधिकारों का समक्षण) अधिनियम १९८६ {Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act 1986} की वैधता को चुनौती दी गयी थी।
महिलाओं को भरण-पोषण भत्ता (maintenance)
अधिकतर धर्मों के लिये स्वीय कानून (Personal Law) अलग-अलग है। अलग-अलग धर्मों में महिलाओं के भरण-पोषण भत्ता की अधिकारों की सीमा भी अलग-अलग है पर यह अलगाव अब टूट रहा है।
Indian Divorce Act ईसाइयों पर लागू होता है। इसकी धारा ३६ में यह कहा गया है कि मुकदमे के दौरान पत्नी को, पति की आय का १/५ भाग भरण-पोषण भत्ता दिया जाय। पहले, अक्सर न्यायालय न केवल मुकदमा चलने के दौरान, बल्कि समाप्त होने के बाद भी १/५ भाग भरण-पोषण के लिए पत्नी को दिया करते हैं। यह सीमा न केवल ईसाईयों पर बल्कि सब धर्मों पर लगती थी। इस समय यह समीकरण बदल गया है और कम से कम पति की आय का १/३ भाग पत्नी को भरण-पोषण भत्ता दिया जाता है। यदि पत्नी के साथ बच्चे भी रह रहे हों तो उसे और अधिक भरण-पोषण भत्ता दिया जाता है।
पत्नी को भरण-पोषण भत्ता प्राप्त करने के दफा फौजदारी की धारा १२५ में भी प्रावधान है। इस धारा की सबसे अच्छी बात यह थी कि यह हर धर्म पर बराबर तरह से लागू होती थी। वर्ष १९८५ में शाहबानो का केस आया। इसमें उसके वकील पति ने शाहबानो को तलाक दे दिया। उसे मेहर देकर, केवल इद्दत के दौरान ही भरण-पोषण भत्ता दिया पर आगे नहीं दिया। शाहबानो ने फौजदारी की धारा १२५ के अंतर्गत एक आवेदन पत्र दिया। १९८५ में उच्चतम न्यायालय द्वारा Mohammad Ahmad Kher Vs. Shahbano Begum में यह फैसला दिया कि यदि मुसलमान पत्नी, अपनी जीविकोपार्जन नहीं कर पा रही है तो मुसलमान पति को इद्दत के बाद भी भरण-पोषण भत्ता देना होगा।
शाहबानो के फैसले का मुसलमानों के विरोध किया। इस पर संसद ने एक नया अधिनियम मुस्लिम महिला विवाह विच्छेद संरक्षण अधिनियम Muslim Women (Protection of Rights on Divorce Divorce Act) 1986 बनाया। इसको पढ़ने से लगता है कि यदि मुसलमान पति, अपनी पत्नी को मेहर दे देता है तो इद्दत की अवधि के बाद भरण-पोषण भत्ता देने का दायित्व नहीं होगा। यह कानून मुसलमान महिलाओं के अधिकार को पीछे ले जाता था। इस अधिनियम की वैधता को एक लोकहित जन याचिका के द्वारा चुनौती दी गयी। वर्ष २००१ में Dannial Latif Vs. Union of India के मुकदमें में उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम को अवैध घोषित करने से तो मना करा दिया पर इस अधिनियम के स्वाभाविक अर्थ को नहीं माना। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस अधिनियम के आने के बावजूद भी यदि पत्नी अपनी जीविकोपार्जन नहीं कर पाती है तो मुसलमान पति को इद्दत की अवधि के बाद भी भरण-पोषण भत्ता देना पड़ेगा। अर्थात इस अधिनियम को शून्य तो नहीं कहा पर इसे निष्प्रभावी कर दिया। उच्चतम न्यायालय का यह फैसला महिलाओं के अधिकारों के सम्बन्ध में अच्छे फैसलों में से एक है।
-उन्मुक्त
(क्रमशः)