तीसरा खंबा

हक-त्याग विलेख और उसका पंजीकृत होना क्यों जरूरी है?

समस्या-

दुर्गेश शर्मा ने आजाद नगर, अजमेर रोड, किशनगढ़ (राजस्थान) से पूछा है-

पिता की मृत्यु वर्ष 2000 से पहले हो चुकी थी। क्या पुत्री से हक-त्याग लेना जरूरी है? अगर लेना जरूरी है तो क्यों?

समाधान-

हिन्दू उत्तराधिकार विधि में 17.06.1956 को एक बड़ा परिवर्तन आया जब हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम पारित हुआ। इस अधिनियम के आने के पूर्व पिता की मृत्यु के बाद उसकी छोड़ी हुई सम्पत्ति में पुत्री का कोई हिस्सा नहीं होता था। पिता की जो भी स्वअर्जित सम्पत्ति होती थी वह सहदायिक हो जाती थी और जिस सहदायिक सम्पत्ति में उसका हिस्सा भी पुत्रों को ही प्राप्त होता था।

उक्त तिथि के उपरान्त पुरुष की स्वअर्जित सम्पत्ति का उत्तराधिकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा-8 के अनुसार होने लगा। धारा-8 में पुरुष की पत्नी, पुत्र, पुत्री, माता तथा पूर्व मृत पुत्र, पुत्रियों के पुत्र, पुत्री आदि उसके प्रथम श्रेणी के उत्तराधिकारी हुए। इनकी जितनी भी संख्या है पुरुष की सम्पत्ति के उतने ही हिस्से होने लगे और प्रत्येक को एक-एक हिस्सा मिलने लगा।

यदि किसी सहदायिक सम्पत्ति में पुरुष का हिस्सा होता था तो उक्त अधिनियम की अनुसूची के अनुसार उसके प्रथम श्रेणी के उत्तराधिकारियों में एक भी स्त्री उत्तराधिकारी अर्थात पत्नी, पुत्र, पुत्री तथा माता में से किसी के भी जीवित रहने पर उसके हिस्से का उत्तराधिकार भी धारा-8 के अनुसार होने लगा। इस तरह पुत्रियों को पिता की सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त हो गया।

यदि पुत्री अपना हिस्सा स्वयं लेना चाहती है तो वह विभाजन करवा सकती है। लेकिन वह अपना हिस्सा नहीं लेना चाहती है और किसी अन्य के हित में उसका त्याग करना चाहती है तो फिर उसके द्वारा हक-त्याग विलेख का निष्पादन आवश्यक है। क्यों कि यह स्थावर सम्पत्ति का हस्तान्तरण है इस कारण उसका पंजीकृत करवाया जाना भी आवश्यक है, उसके बिना उसका हिस्सा किसी और को हस्तान्तरित नहीं हो सकता।

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