हताश और क्रोधित वकील समुदाय और श्री कृष्णा आयोग की अंतरिम रिपोर्ट
दिनेशराय द्विवेदी
मद्रास उच्चन्यायालय में पुलिस द्वारा किए गए संहार और वकीलों की जारी काम बंदी के बीच जस्टिस श्री कृष्णा आयोग की अंतरिम रपट आ गई। जब से उसे पढ़ा है, तीसरा खंबा पर कुछ और लिखने का मन नहीं कर पाया। आश्चर्य की बात तो यह है कि अदालत ब्लाग पर उस की खबर होने के बावजूद बहुत कम लोगों ने उसे पढ़ा है। अदालत ब्लाग के मॉडरेटर के अनुसार इस समाचार हिंसक झड़प के लिए वकील ज्यादा जिम्मेदार के सात मार्च को प्रकाशित होने के बाद उसे केवल 7 पाठकों ने पढ़ा है। इस खबर पर मेरे और सुरेश चिपलूनकर जी के अलावा किसी की टिप्पणी भी नहीं है। इस से देश में घट रहे महत्वपूर्ण घटनाक्रम पर हिन्दी ब्लाग जगत की संवेदनशीलता की गंभीरता का सहज ही अनुमान किया जा सकता है।
वकीलों द्वारा हड़ताल किए जाने के समाचार आप ने अक्सर ही पढ़े होंगे। 117 करोड़ की जनसंख्या के इस विशाल देश में मात्र 14 हजार अदालतें हैं, जिनमें से किसी न किसी अदालत या एक से अधिक अदालतों में वकीलों की काम-बंदी होती रहती है। इन के पीछे अधिकतर खुद वकीलों के मसले होते हैं। कभी कभी जनता से जुड़े मसले भी होते हैं। इस से एक बात पता लगती है कि वकील समुदाय का तीन चौथाई से भी अधिक हिस्सा अपनी और न्याय व्यवस्था की वर्तमान स्थितियों से बुरी तरह असंतुष्ट है। इस से अदालतों का काम तो प्रभावित होता ही है, न्यायार्थियों को भी बहुत कष्ट उठाना पड़ता है। एक व्यक्ति जो न्याय के लिए बरसों से अदालत के चक्कर काट रहा है, जिस के मुकदमे में चार से छह माह की पेशी पड़ती है यानी साल में दो या तीन मात्र, जब उसे अदालत आने पर पता लगता है कि सब कुछ ठीक है लेकिन वकील काम नहीं कर रहे हैं तब उस पर क्या गुजरती है यह या तो वह खुद जानता है या फिर उस का वकील ही जानता है। उस का गुस्सा सब से पहले अपने वकील पर ही टूटता है। वकील उसे कैसे जवाब देता है और कैसे संतुष्ट करता है यह केवल वकील ही समझ सकता है। सारे वकील इस के शिकार हैं, लेकिन फिर भी वे काम बंदी और हड़ताल करते हैं। इस का अर्थ यही लगाया जाना चाहिए कि वकीलों का बड़ा बहुमत कुंठा और हताशा का शिकार (Frustrate) है।
तीसरा खंबा लगातार अपने जन्म से ही इन हालातों का उल्लेख करता आया है। जब मैं ने तीसरा खंबा के प्रारंभिक लेख लिखे तो उन पर वकीलों के प्रति जो गुस्सा और घृणा का इजहार हुआ वह मेरे लिए पहले से अपेक्षित था और जो न होता तो यह वकील महिने-दो महिने ब्लाग जगत में हाथ पैर मार कर इसे हाथ जोड़ जाता। मैं ने हिन्दी ब्लाग जगत में न्यायव्यवस्था के अन्तर्विवरोधों को रखने का प्रयत्न किया। जिस का आज नतीजा यह है कि जिन लोगों ने गुस्से और घृणा का व्यवहार किया था वे ही आज मेरे सब से अधिक शुभाकांक्षी और सहृदय मित्र और साथी हैं।
हमारी न्याय प्रणाली विश्व की श्रेष्ठतम प्रणालियों में से एक है, यह तथ्य विश्व स्तर पर मान्य है। इस की 90 प्रतिशत समस्याओं का मूल अदालतों का जरूरत से चौथाई अदालतों का होना है। अदालतों पर चार गुना बोझा है। न्यायार्थियों की लम्बी कतार है। जो आगे खिसकती रहती है। उन में से कोई मर जाता है तो उस के स्थान पर उस के विधिक प्रतिनिधि खड़े हो जाते हैं। इस तरह एक न्यायार्थी के मरने पर उस के तीन-चार विधिक प्रतिनिधि उस के स्थान पर कतार में आ खड़े होते हैं और कतार लम्बी होती जाती है। हर रोज कुछ नए न्यायार्थी आ शामिल होते हैं। 
; लेकिन उतने कतार के बाहर नहीं जाते। यदि अदालतों की संख्या तुरंत दो गुनी हो जाए तो न्याय प्रणाली विश्व की श्रेष्ठतम भी हो सकती है।
इस न्याय प्रणाली में नियोजित विधि स्नातकों के 80 प्रतिशत वकील हैं। जिन की समस्याओं पर किसी का कोई ध्यान नहीं है। वे व्यवसायी हैं लेकिन विज्ञापन नहीं कर सकते। नतीजा यह है कि मुवक्किलों को खुद तक लाने के सभी बेकिताबी तरीके उन्हें अपनाने होते हैं। एक मुकदमे की फीस के लिए दसियों बरस तक लड़ते हैं। अनेक मामलों में तो उन्हें फीस मुकदमे के निर्णय के उपरांत मिलती है। जब कि एक मुकदमे की फीस का आधा या उस से कुछ ही कम रुपया तो उन के खर्चों में निकल जाता है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्चन्यायालयों के अतिरिक्त सभी न्यायालयों में काम करने वाले वकीलों में से 80% प्रतिशत की आर्थिक हालत दयनीय होने लगी है। इतना होने पर भी माया जाल ऐसा है कि वकीलों का बहुमत भाग यह समझने में अक्षम है कि उन की खराब हालत का कारण अदालतों का निहायत कम होना है। यही कारण है कि वे अपनी हताशा के मुख्य कारण के अलावा मामूली कारणों पर उद्वेलित हो उठते हैं। खैर इन विषयों पर बात फिर कभी लेकिन अभी बात मद्रास उच्च न्यायालय की।
वकीलों की काम बंदी का सब से कम असर कहीं देखने को मिलता है तो वह उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में। इस की अधिकांश घटनाएँ जिला स्तर और उस से निचले न्यायालयों में अधिक होती हैं। लेकिन इस बार मद्रास उच्चन्यायालय में लगातार 30 जनवरी से काम बंदी चल रही है। बीच में वकीलों के एक अल्पमत ने इस कामबंदी को तोड़ने की कोशिशें कीं और उस में जो पुलिस हस्तक्षेप हुआ तो पुलिस कर्मियों ने उन का गुस्सा वकीलों पर ही नहीं अदालतों में काम करने वाले अन्य लोगों और यहाँ तक कि उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के सिर पर लाठी मार कर निकाला। अदालत की सरकारी संपत्ति को नष्ट किया और यहाँ तक कि मद्रास उच्चन्यायालय परिसर के बाहर नजदीक में बने वकीलों के चैम्बरों में पहुंच कर वहाँ बैठे वकीलों को पीटा और उन के चैम्बरों को तहस नहस कर डाला। 19 फऱवरी का वह दिन ऐतिहासिक मद्रास उच्च न्यायालय के इतिहास में एक काले दिन के रूप में लिखा जाएगा।