समस्या-
द्वारका ने बीकानेर राजस्थान से पूछा है-
मेरे परदादा जी ने सन 1926 में एक घर ख़रीदा। परदादा जी की मृत्य 1930 के आस पास हो गई। परदादा जी के एक लड़के मेरे दादाजी हुए। दादाजी के चार लड़के तीन लडकियाँ हुईं। दादाजी की मृत्यु सन 1983 में हो गई। अंकल ने सन 1988 में अपना हिस्सा लेने के लिए मेरे पिताजी पर विभाजन का मुकदमा किया। मुकदमा ख़ारिज हो गया। अब अंकल के लड़के ने सन 2008 में मेरे दादा जी के नाम से अपने पिता के पक्ष में सन 1981 की एक फर्जी वसीयत बना कर घर को 2009 में बेच दिया। वसीयत में मेरी एक भुआ को 1981 में मरा हुआ बताया गया है जबकि मेरी भुआ मेरे दादा जी के 3 साल बाद 1986 में मरी है ,लेकिन पुलिस ने इस बात को जाँच में शामिल नहीं किया। हिन्दू उत्तराधिकार 1925 और हिन्दू उत्तराधिकार 1956 के अनुसार तो पुस्तैनी घर की वसीयत करने का दादा जी को अधिकार ही नहीं था। दादाजी को उत्तराधिकार, परदादा जी की मृत्यु होने के बाद 1930 के आस पास में ही मिल गया था। मामला 2009 से कोर्ट में चल रहा है। क्या घर पुस्तैनी कहलायेगा? क्या दादा जी को पूरे घर की वसीयत करने का अधिकार था? क्या कोर्ट इस तरफ भी ध्यान देगी कि घर तो पुस्तेनी है?
समाधान-
आप का मकान पुश्तैनी और सहदायिक संपत्ति है। यह आप के दादा जी की निजि संपत्ति नहीं थी। जो भी दीवानी वाद अदालत में लंबित है उस में आप को वसीयत को भी चुनौती देनी चाहिए। क्यों कि वसीयत के कंटेंट गलत हैं और कोई भी पिता अपनी जीवित पुत्री को मृत घोषित नहीं कर सकता। उस के गवाह आदि को जिरह करने पर वसीयत भी गलत साबित हो सकती है।
सहदायिक संपत्ति में पुत्रों का जन्म से अधिकार होता है। इस कारण आप के दादा जी द्वारा की गयी संपूर्ण सम्पत्ति की वसीयत कानून के विपरीत है। आप के दादाजी उन के अपने हिस्से की वसीयत कर सकते थे, पूरी संपत्ति की नहीं।
फिर भी इस प्रकरण में अन्य अनेक जटिल बिन्दु आ सकते हैं, बल्कि अनिवार्य रूप से आएंगे। इस कारण आप का वकील ऐसा होना चाहिए जो कानून की नवीनतम व्याख्याओं की जानकारी रखता हो और लगातार नयी जानकारियाँ हासिल कर पैरवी करता हो। आप को भी विशेष रूप से एलर्ट रहने की जरूरत है। अनेक बार मुवक्किल की सुस्ती और नवीनतम कानूनी व्याख्याओं की जानकारी न होने से भी मुकदमें में हार का मुहँ देखना पड़ता है।