विधायिका ने ऐसी ही परिस्थितियो के लिए 2005 में स्त्रियों के प्रति घरेलू हिंसा कानून बनाते समय कुछ प्रावधान बनाने का प्रयत्न किया। इस कानून के अंतर्गत वे स्त्रियाँ राहत प्राप्त करने की अधिकारी हैं जिन के साथ पुरुष का कोई घरेलू संबंध है या रहा है। इस घरेलू संबंध पद में विवाह की प्रकृति का संबंध भी सम्मिलित किया गया है। उच्चतम न्यायालय ने इस चर्चित निर्णय में विवाह की प्रकृति के संबंध को ही परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। यहाँ हम चर्चित मामले के तथ्यों के साथ न्यायालय की विवेचना को संक्षेप में समझने का प्रयत्न करेंगे।
ी उस के पिता के घर उस के साथ दो-तीन वर्ष तक साथ रहा, फिर उस ने घर छोड़ दिया और अपने जन्मस्थान पर रहने लगा। लेकिन वह कभी-कभी आ कर उस के पिता के घर उस से मिल कर जाता था। इस तरह वैलूसामी ने उसे त्याग दिया। उस के पास आजीविका का कोई साधन नहीं है, जब कि वैलूसामी द्वितीय श्रेणी अध्यापक है, उसे वैलूसामी से गुजारा भत्ता दिलाया जाए। परिवार न्यायालय से उस ने प्रार्थना की कि उसे वैलूसामी से 500 रुपए प्रतिमाह गुजारा-भत्ता दिलाया जाए।
वैलूसामी का कहना था कि उस का विवाह तो 25.08.1980 को लक्ष्मी के साथ हो चुका ता जिस से उसे एक पुत्र भी है जो ऊटी में इंजिनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है। उस ने अपने शपथ पत्र के साथ राशनकार्ड, मतदाता परिचयपत्र, उस के पुत्र का स्थानांतरण प्रमाण पत्र, पत्नी लक्ष्मी का अस्पताल से डिस्चार्ज होने का टिकट तथा विवाह के चित्र प्रस्तुत किए। परिवार न्यायालय ने साक्ष्य के उपरांत माना कि वैलूसामी का विवाह पत्चीअम्मा के साथ हुआ था न कि लक्ष्मी के साथ। उच्च न्यायालय ने भी निष्कर्ष को यथावत रखा। वैलूसामी ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत की।
उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में सब से पहले तो यह कहा कि परिवार न्यायालय ने अपने निर्णय में लक्ष्मी के वैलूसामी के साथ विवाह को अकृत करार दिया है। इस तरह एक ऐसी महिला के विवाह के संबंध में घोषणा की गई है जिसे मामले में पक्षकार ही नहीं बनाया गया था। इस तरह की गई घोषणा का कोई विधिक मूल्य नहीं है। यदि यह घोषणा नहीं की जाती तो पत्चीअम्मा के साथ हुआ उस का विवाह वैध नहीं ठहराया जा सकता था। क्यों कि फिर वैलूसामी हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार लक्ष्मी के साथ हुए विवाह के समाप्त हुए बिना दूसरा विवाह नहीं कर सकता था। यदि उस ने किया भी तो वह एक वैध विवाह नहीं है। निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने अपनी ही तीन न्यायाधीशों की बैंच द्वारा विमला बनाम वीरूस्वामी के प्रकरण में दिए गए निर्णय का उदाहरण देते हुए कहा कि इस निर्णय के द्वारा धारा 125 के अंतर्गत एक अवैध विवाह की पत्नी को गुजारा भत्ता प्राप्त करने की अधिकारी नहीं माना है। सविताबेन सोमाबाई भाटिया बनाम गुजरात सरकार के मुकदमे में दिए गए निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि किसी विवाहित पुरुष के साथ अवैध विवाह होने पर स्त्री दुर्भाग्यशाली हो सकती है लेकिन अदालत उसे कोई राहत प्रदान नहीं कर सकती। इस तरह के मामलों में गुजारा भत्ता प्राप्त करने का अधिकार केवल विधायिका द्वारा निर्मित कानून से ही मिल सकता है।
के बन रहे संबंधों और पाश्चात्य देशों में इस तरह के संबंधों और पाश्चात्य देशों के न्यायालयों द्वारा प्रदान किए गए निर्णयों पर भी विचार किया। उच्चतम न्यायालय ने रेखांकित किया कि जैसे एक विवाहिता द्वारा मांग किए जाने वाले गुजारा भत्ता को एलीमनी कहा जाता है उसी तरह पाश्चात्य देशों में लिव-इन-रिलेशन के आधार पर मांगे जाने वाले गुजारा भत्ता को पैलीमनी कहा जा रहा है। लेकिन इस मा्मले में यह विचार नहीं किया जा सकता कि पत्चीअम्मा को किसी लिखित, या मौखिक या व्यवहार जनित संविदा के आधार पर पैलीमनी दिलाई जा सकती है या नहीं, क्यों कि यहाँ ऐसा दावा ही नहीं किया गया है।
क-युगल का समाज के समक्ष व्यवहार ऐसा है जैसा कि विवाहित युगल का होता है;
ख- उन्हों ने विवाह के योग्य न्यूनतम आयु अर्जित कर ली हो;
ग- अन्यथा भी वे विवाह के योग्य हों, जैसे दोनों का अविवाहित होना; तथा
घ- दोनों दुनिया के समक्ष एक उचित समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे हों।
तो ऐसे संबंध को “विवाह की प्रकृति का सम्बन्ध” माना जा सकता है।
इस तरह सभी लिव-इन-रिलेशनशिप को “विवाह की प्रकृति का सम्बन्ध” माना जा सकता है यदि वे उक्त शर्तों को पूरा करते हों।