ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न होने पर कि किसी वादी या प्रतिवादी को गलत रूप से वाद में संयोजित कर लिया गया हो या फिर किसी आवश्यक पक्षकार को वाद में पक्षकार न बनाया गया हो तो दीवानी प्रक्रिया संहिता में इस तरह के उपबंध किए गए हैं कि न्यायालय ऐसी स्थिति उस के संज्ञान में आने पर या किसी पक्षकार द्वारा प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर उस के संज्ञान में लाए जाने पर किसी व्यक्ति को वादी या प्रतिवादी के रूप में वाद में जोड़ सकता है और किसी कुसंयोजित पक्षकार को वाद से हटा सकता है।
दीवानी प्रक्रिया संहिता के आदेश 9 में यह उपबंधित किया गया है कि यदि किसी वाद में किसी पक्षकार का कुसंयोजन या असंयोजन हुआ हो तो वह वाद केवल इस कारण से असफल नहीं होगा और उस वाद का निपटारा उस सीमा तक किया जा सकेगा जहाँ तक वह संयोजित किए गए पक्षकारों के हितों और अधिकारों से संबंधित है।
आदेश 10 नियम 1 में न्यायालय को यह अधिकार दिया गया है कि यदि वाद के किसी भी प्रक्रम पर उस के ज्ञान में यह आने या लाए जाने पर कि वाद किसी गलत व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत कर दिया गया है और यह भूल सद्भाविक रूप से हुई है और वास्तविक विषय का अवधारण करने के लिए आवश्यक है तो न्यायालय वादी को किसी अन्य व्यक्ति से प्रतिस्थापित करने या किसी अन्य व्यक्ति को वादी के रूप में वाद में जोड़े जाने का आदेश उचित शर्तों पर दे सकता है।
आदेश 10 नियम 2 में यह उपबंधित किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति को वाद गलत रूप से संयोजित किया गया है अथवा किसी को संयोजित नहीं किया गया है तो वाद के किसी भी प्रक्रम पर वादी या प्रतिवादी के रूप में कुसंयोजित व्यक्ति का नाम वाद से हटा सकता है और यदि आवश्यक होने पर भी किसी व्यक्ति को संयोजित नहीं किया गया है तो उसे वादी या प्रतिवादी के रूप में संयोजित कर सकता है।
लेकिन यदि वाद का कोई पक्षकार इस बात पर आपत्ति करना चाहता है कि वाद में किसी व्यक्ति को कुसंयोजित किया गया है अथवा असंयोजित है तो ऐसा आक्षेप उसे शीघ्रतम अवसर पर कर देना चाहिए। जिन मामलों में विवाद्यक न्यायालय द्वारा स्थिर किए जाने हैं उन में ऐसे आक्षेप विवाद्यक स्थिरिकरण के समय या उस से पहले करने चाहिए जब तक कि आक्षेप करने का आधार विवाद्यक स्थिरिकरण के बाद उत्पन्न नहीं हुआ हो।, अन्यथा न्यायालय द्वारा यह समझा जाएगा कि पक्षकार ने ऐसा आक्षेप करने के अपने अधिकार का त्याग कर दिया है।