लेकिन, इस कानून के साथ ही भारत में एक परिसीमा अधिनियम-1963 (Limitation Act-1963) भी है। इस की धारा 3 में यह उपबंध है कि कोई भी दावा, प्रार्थना पत्र, अपील, पुनरीक्षण और पुनरावलोकन आवेदन यदि वे इस अधिनियम में निर्धारित अवधि और उपबंधों के परे प्रस्तुत किए जाते हैं तो प्रतिरक्षा में परिसीमा की प्रतिरक्षा नहीं लिए जाने पर भी निरस्त किए जा सकेंगे। इस अधिनियम की अनुसूची के भाग 5 में वह परिसीमा दी गयी है जिस में इस तरह का दावा न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है। अनुसूची के अनुच्छेद-65 में यह उपबंध है कि यदि किसी व्यक्ति का किसी संपत्ति पर कब्जा प्रतिकूल हो जाए तो कब्जा प्रतिकूल होने से 12 वर्ष की अवधि में ही उस संपत्ति का कब्जा प्राप्त करने के लिए संपत्ति का विधिक स्वामी उस का कब्जा प्राप्त करने के लिए वाद संस्थित कर सकता है।
प्रतिकूल कब्जा क्या है?
अब यहाँ प्रश्न उठता है कि प्रतिकूल कब्जा क्या है? तो प्रतिकूल कब्जा होने का दावा करने वाले व्यक्ति के लिए यह जरूरी है कि वह न्यायालय के समक्ष साबित करे कि जिस संपत्ति पर वह काबिज है। उस संपत्ति पर वह उस संपत्ति के स्वामी के स्वामित्व को नकारते हुए काबिज हुआ था। जिस तिथि से वह काबिज हुआ था उस पर उस के कब्जे की जानकारी सामान्य लोगों को है और वर्तमान में उस का वास्तविक कब्जा मौजूद है। इस के साथ ही उसे यह भी दिखाना पड़ेगा कि जब से वह संपत्ति पर कब्जे में है तब से उस का कब्जा निर्बाध रूप से चला आ रहा है। इन परिस्थितियों में यह माना जाएगा कि उस व्यक्ति का कब्जा प्रतिकूल कब्जा है। यदि यह प्रतिकूल कब्जा विगत 12 वर्ष से अधिक समय से चला आ रहा है तो उस के विरुद्ध कब्जे का दावा परिसीमा के बाद दाखिल किया जाने के कारण ही निरस्त हो जाएगा।