उन्हें बेशर्म कहने से तो बेशर्मी भी अपमानित हो जाएगी
|संयुक्त परिवार के किसी बुजुर्ग के बारे में परिवार के किसी कमाऊ सदस्य से पूछा जाए कि उन के बारे में आप का क्या कहना है। वह कहेगा, वे सम्माननीय हैं, मैं उन का बहुत आदर करता हूँ, जब भी कोई समस्या होती है तो उसे वे ही निपटाते हैं, उन का फैसला हमेशा सही होता है, वे हमेशा पूरे परिवार का ख्याल करते हैं, आदि आदि ………….
लेकिन जब उन्हें बताया जाए कि उन बुजुर्ग की क्या हालत है? वे कल सरे आम आप से कह रहे थे कि आप उन्हें जरूरत के माफिक न खाना मुहैया कराते हैं, न मौसम के मुताबिक कपड़ा और न ही बीमार पड़ने पर डाक्टर और दवाएँ। तो वे क्या करेंगे? शायद शर्म से मुँह झुका लेंगे और शायद उन्हें नसीहत भी मिले कि उन बुजुर्गवार की जरूरतें पूरी करना जरूरी है।
लेकिन हमारे देश के मुख्यमंत्रियों को शायद शर्म नहीं आती है। वे ऐसी बातें एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं। वे तो जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भी पूरा नहीं करते।
बात देश की न्यायपालिका की है, जो कहने को राज्य व्यवस्था का तीसरा खंबा है पर शायद वे लोग इस व्यवस्था को केवल दो ही खंबों पर खड़े रखना चाहते हैं। हमारे देश के मुख्य न्यायाधीश पिछले एक वर्ष से लगातार कह रहे हैं कि हमें और अदालतें चाहिए। भारत सरकार ने इस पर ध्यान भी दिया। संसद में विधि और न्याय मंत्री ने बयान भी दिया कि देश में प्रति दस लाख आबादी पर 50 अदालतें होनी चाहिए, और हमें यह लक्ष्य 2014 तक हासिल कर लेना चाहिए। केन्द्र सरकार ने उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की संख्या भी बढ़ाई। इस से नीचे अर्थात जिला और उस की अधीनस्थ न्यायालयों को खोलने और उन का खर्च उठाने की जिम्मेदारी राज्यों की है। केन्द्र सरकार ने राज्यों की सहायता भी की और वित्त उपलब्ध करवा कर फौजदारी काम निपटाने के लिए फास्ट ट्रेक अदालतें खोलीं। जिस से जिला स्तर की अदालतों में दीवानी मामले पहले की अपेक्षा तेजी से निपटने लगे।
राज्य? उन का हाल बहुत बुरा है। लगता है वे न्यायपालिका की कोई जिम्मेदारी पूरा करना ही नहीं चाहिए। यदि उन से कहा जाए कि क्या वे चाहते हैं? क्या न्यायपालिका की जिम्मेदारी उन से छीन कर केन्द्र सरकार को दे दी जाए? तो वे सहर्ष इस पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा देंगे। एक माह पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट रुप से कहा कि राज्यों में दस हजार अदालतों की तुरंत आवश्यकता है और राज्य सरकारों को इस की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, अन्यता पूरी न्याय व्यवस्था पर से जनता का भरोसा उठ जाएगा जो कि देश और समाज के लिए ठीक नहीं होगा।
देश के एक भी मुख्यमंत्री के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई, किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगी। एक भी मुख्य मंत्री ने देश के मुख्य न्यायाधीश के इस बयान पर प्रतिक्रिया नहीं दी। यह तक नहीं कहा कि वे इस ओर क्या कदम उठाने की सोच रहे हैं। आखिर 28 मार्च, 2009 को फिर से मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन को कहना पड़ा कि राज्यों को अधीनस्थ अदालतों की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। वे बंगलोर में सातवें अखिल भारतीय राज्य विधिक प्राधिकरण सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे।
उन्हों ने कहा कि, मैं राज्यों के मुख्यमंत्रियों से आग्रह करता रहा हूँ कि वे न्याय पालिका को मज
आपसे असहमत होने का कोई प्रश्न ही नहीं। प्यायपालिका के लोग चूंकि सडक पर आकर, काम ठप्प नहीं करते इसलिए मुख्यमन्त्री इनकी परवाह भी नहीं करते।
या बेशर्मी तेरा ही आसरा…..
दिनेश जी, नमस्कार
काफ़ी दिनों से मेरे जेहन में एक बात कौंध रही है कि क्या” भारत के प्रधानमंत्री भी सूचना के अधिकार” के कानून के दायरे में आते हैं?
इस बारे में अगर् आप मुझे हिन्दी में मेल कर दें तो बेहतर अन्यथा कोई पोस्ट भी लिख दें तो बहुत ही उचित होगा.
मेरा ई-मेल है
tirupati.balaji@hotmail.com
क्या किया जा सकता है द्विवेदी जी. सच तो यह है कि वे किसी की भी आवश्यकताएं पूरी नहीं कर रहे हैं. यह हाल एक मुझ्यमंत्री नहीं, पूरे देश की सरकार की है.
आपकी चिन्ता जायज है, इन्हें कुछ भी कहलो, इनकी खाल गेण्डे से भी मोटी है।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
“इन सब मुख्यमंत्रियों को बेशर्म कहा जाए तो बेशर्मी भी अपमानित हो जाएगी।”
सच ही कह रहे हैं………..
जब घोषित अपराधी का पोलिस कस्टडी में भी हँसता हुआ चेहरा दिखाई देता है तो लगता है कि ससुराल या जन्नत जा रहा है, जहाँ उसे और सुभिधाएं मिलेगी.
वैसे न्यायपालिका को भी गौर करना चाहिए कि सरकार जो कुछ करना ही नहीं चाहती, उससे अपेक्षा कैसी, उसे तो स्वयं लम्बी खिचती न्यायिक प्रक्रिया को छोटा करने के प्रयास क्या स्वयं नहीं करने चाहिए.मसलन,
तिथि जिस कार्य के लिए मुक़र्रर की गयी, उस दिन ही वह कार्य पूर्ण किया जे, किसी भी हालात में तारिख आगे न बढाई जाये.
चन्द्र मोहन गुप्त
कई सदियां लगेंगी पेंडिग मुकदमों के फैसलों में। अगले दस साल तक सैन्य खर्च में कटौती कर अदालतों के विस्तार का काम करना चाहिए…
दिनेश जी मुझे तो लगता है सब से ज्यादा मुकदमे इन ही मुख्या मंत्रियो के ही होगे ? इस लिये अपने पांव पर कोन कुलहादी मारे,
वेसे एक बात पक्की है अगर युही देश कै पढए लिखे लोग धक्के खाते रहे ओर अनपढ, चोर, जेबकतरे नेता बन कर उन पर राज करते रहे… तो यह कब तक चलेगा… एक दिन लावा जरुर फ़ुटे गा.
आप ने बहुत ही सुंदर लेख लिखा, शायद इसे पढ कर ही किसी बेशर्म को शर्म आ जाये.
धन्यवाद
sach hai.parantu jub tuk neta yeh nahi sochna shuru karte ki nyay pana pratyek nagarik ka dhikar hai tub tuk ve kuchh bhi kyon karenge?
ghughutibasuti
आपने सच लिखा है .कैसे -कैसे उदाहरण सामने आ रहें हैं .
माननीय महोदय,
आज आपके ब्लाग पर आने का अवसर मिला। बहुत ही उपयोगी रचना है आपकी। यदि आप इन्हें प्रकाशित कराना चाहते हैं तो मेरे ब्लग पर अवश्य ही पधारे। आप निराश नहीं होंगे।
समीक्षा के लिए http://katha-chakra.blogspot.com
आपके संग्रह/पुस्तक प्रकाशन के लिए http://sucheta-prakashan.blogspot.com
अखिलेश शुक्ल
यह उनके एजेंडे के बाहर है. प्रजातंत्र के नाम पर यदि हमारे यहाँ ऐसे ही अशिक्षित/अल्पशिक्षित संवेदनहीन,लोगों को सत्ता में रक्खा जावे तो यही होगा. वो दिन दूर नहीं जब पूरी की पूरी व्यवस्था ही चरमरा जावे. हमें कुछ तो करना ही होगा.