चैक बाउंस के मुकदमे मे पेशी का एक सीन
|वह मध्यवर्गीय व्यापारी परिवार से है। पति-पत्नी और एक बेटी, यही उस का परिवार। कोई छोटा सा ट्रेडिंग का व्यवसाय। आमदनी इतनी कि जिन्दगी मजे में चल जाए। आस पास पत्थर खानों और पत्थर पॉलिश के कारखानों का क्षेत्र जिस में होता मजदूरों का बेहिसाब शोषण उस से देखा न जाता तो जब भी कोई परेशान मजदूर दिखाई पड़ता उस के साथ हो लेता उसे नाइंसाफी के लिए लड़ने को प्रेरित करता, लड़ना सीखने और लड़ने में उस की मदद करता। इसलिए वह अपने ही वर्ग में वर्गद्रोही की तरह देखा जाने लगा।
बेटी जवान हुई तो ठाठ से उस की शादी की। खर्च के लिए रुपया जहाँ से मिल सकता था, जिस शर्त पर मिला उधार लिया। यह तक नहीं सोचा कि देने वाला उस से क्या लिखा रहा है? कितने चैक हस्ताक्षर करवा रहा है? कर्जा लेने का आधार रहा कि दोनों इस शादी के बाद क्या उत्तरदायित्व है, दोनों पति-पत्नी के लिए तो कमा ही लेंगे, कर्जा अपनी पैतृक संपत्ति का एक भाग बेच कर चुका देंगे।
कर्जा देने वालों में से एक ने शादी के बाद ही संपत्ति पर लिखवा दिया कि यह संपत्ति उस के पास रहन है। संपत्ति के खरीददार इस टिप्पणी से भागने लगे। कर्जे चुकाना असंभव हो गया। संपत्ति को रहन बताने वाले ने लिए हुए चैक बैंक में लगा कर बाउंस करा लिये और अदालत में दोनों पति-पत्नी के खिलाफ तीन-तीन मुकदमे दर्ज करवा दिए। संपत्ति पर एक की निगाह है वह उसे अपने ही कर्ज के बदले हथियाने पर तुला है और बाजार दर पर बेचने नहीं दे रहा है। दूसरे साहूकार जिन से उस ने कर्ज लिया था वे भी अदालत में चैक बाउंस के मुकदमें दर्ज करवा चुके हैं। पेशी पर हाजिर न होने के कारण दोनों पति-पत्नी के गिरफ्तारी वारंट जारी हो गए। उन्हें गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया। पत्नी की हालत सदमे से ही बिगड़ी हुई थी, मजिस्ट्रेट महिला थी उस ने दया कर जमानत ले ली। अगली पेशी पर पत्नी बीमारी के कारण नहीं आ सकी, उस से अगली पेशी पर पत्नी की हालत और बिगड़ी तो खुद भी नहीं आ सका। मजिस्ट्रेट फिर से जमानत जब्ती को और उपस्थिति से मुक्ति के आवेदन को निरस्त करने को तैयार। वकील ने मोर्चे पर अपने वरिष्ठ वकील को भिड़ा दिया।
अब तक की कहानी तीसरा खंबा के क्षेत्र से बाहर की हो सकती है पर किसी अदालत के अंदर के व्यवहार को समझने के लिए जरुरी होने से यहाँ भूमिका रूप में आवश्यक भी थी।
मजिस्ट्रेट का सारी बात पर कहना था -आरोप के स्तर पर मुकदमा रुका पड़ा है उसमें तो कार्रवाई होनी चाहिए। कब तक रुका रहेगा। वारण्ट के बिना अभियुक्त आऐंगे नहीं, कैसे अदालत चलेगी।
वकील- सर। हम जानते हैं कि हजारों मुकदमे आपकी अदालत में लम्बित हैं, आप सख्ती न करें तो बरसों तक फैसले ही न हों।
मजिस्ट्रेट- उससे भी हमें कोई मतलब नहीं हमें जितने फैसलों का कोटा दिया जाता है उससे दुगने ही कर देते हैं। पर हर मुकदमे में कार्रवाई होनी चाहिए। आखिर परिवादी को भी तो न्याय होता दिखना चाहिए।
वकील- आप की बात सही है। मैं कोई रहम करने को भी नहीं कहता, अगर यह महिला गंभीर रूप से बीमार न होती और उस की परिचर्या के लिए उस के पति का उस के पास रहना आवश्यक न होता। अगर अगली पेशी पर दोनों हाजिर न हों तो आप बे-शक जमानत जब्त कर लेना।
मजिस्ट्रेट- हमें उन के आने न आने से कोई मतलब नहीं हमें तो उन की जरूरत केवल चार पेशी पर है। एक बार शुरू में जमानत के वक्त, फिर आरोप तय कर सुनाते समय, फिर बयान मुलजिम के वक्त और अन्त में फैसले के वक्त। वैसे भी रोज सौ से डेढ़ सौ मुकदमे होते हैं सभी यहाँ आने लगे तो यहाँ न अन्दर खड़े रहने की जगह है और न बाहर। वाहन स्टेण्ड पर जितने वाहन खड़े हो सकते हैं उस से दस गुना रोज यहाँ आते हैं। निकलने को जगह नहीं रहती।
यहाँ आ कर वार्तालाप की स्थिति ऐसी हुई कि लगा कि मजिस्ट्रेट साहब आज की उपस्थिति तो मुक्त कर ही देंगे।
वकील- तो सर। आज उपस्थिति मुक्त कर दें। अगली पेशी पर आ जाऐंगे।
मजिस्ट्रेट- आप चार दिनों की तारीख ले लें।
वकील- सर। वह मरते-मरते बची है, इतनी जल्दी ठीक नहीं हो सकेगी। वकील सतर्क हो गया। वह चार दिन के लिये मान जाता तो मजिस्ट्रेट यही समझता कि वकील झूठा बहाना बना रहा है।
मजिस्ट्रेट- नहीं, चार दिनों से अधिक का वक्त नहीं दिया जाएगा।
वकील- सर। ऐसा है, तो फिर आप आज ही जमानत जब्त कर लीजिए। फिर जो भी होगा देखा जाएगा। कम से कम ठीक होने में पखवाड़ा तो लग ही जाएगा।
मजिस्ट्रेट- ऐसा तो पन्द्रह दिन की तारीख ले लो, पेशकार जी इन्हें तारीख दे दो।
पेशकार ने एक माह के भी आठ दिन बाद की पेशी दे दी। इस से पहले उस की डायरी में सवा सौ से भी अधिक मुकदमे प्रतिदिन लगे थे।
इस पूरे आख्यान को आप को बताने का अर्थ केवल इतना ही था कि अदालतों को अब न्याय करने से कोई मतलब नहीं रह गया है। मजिस्ट्रेट-जज भी वहाँ और कर्मचारियों अफसरों की तरह नौकरी की ड्यूटी कर रहे हैं। दो-सौ प्रतिशत कोटा निकाल रहे हैं और प्रशंसा व पदोन्नतियाँ पा रहे हैं। इतना कोटा निकालना आसान है क्यों कि उन के पास उन की शक्ति से पाँच से दस गुना मामले लम्बित हैं। आसान मामलों को निर्णीत करते हैं। जटिल मामले धूल खाते रहते हैं। इन सारी परिस्थितियों ने मजिस्ट्रेटों और जजों को भाव शून्य कर दिया है। कागजी न्याय करना पड़ रहा है। वे दुःखी भी होते हैं लेकिन मुकदमों के अम्बार के सामने कुछ नहीं कर सकते। इस स्थितियों में एक भला आदमी तो अदालत जाता नहीं। अब फरियादियों में कुटिल और चालाक लोगों की बहुतायत है और सजाओं के इन्तजार में मुकदमें भुगतने वालों में भले तथा परिस्थितियों के मारे लोगों की संख्या अधिक है।
विशेष– कुछ व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण बीच-बीच में कुछ अधिक अनुपस्थितियाँ हो गई हैं। पर इन पर काबू पाने का प्रयत्न जारी है। आगे से कमी आएगी। मैं बात कर रहा था कि कैसे अदालतों की संख्या बढ़ाई जा सकती है? इस पर चर्चा जल्दी ही होगी लेकिन इस से पहले हम इस पर बात करेंगे कि अदालतों के कम होने और मुकदमों का अम्बार लगे होने के क्या-क्या दुष्प्रभाव हो रहे हैं।
excessive account you’ve receive
I’d come to allow with you on this. Which is not something I usually do! I love reading a post that will make people think. Also, thanks for allowing me to speak my mind!
अँधरे कानून की आँखें खोल देने वाली बानगी !
लेकिन सुना है, राज्य सरकारों द्वारा जारी चेक
भी धड़ल्ले से बांउस हो रहे हैं । कोई ऎसा मुकद्दमा
भी सामने लायें, उत्सुकता है,इसका सच जानने की !
सही है नेट पर कानूनी दांव पेच समझाते रहिए। और, अब तीसरा खंभा बतंगड़ के रास्ते भी देखा जा सकता है।
हम तो पहले ही अदालत, थाने आदि से डरते थे आपने और डरा दिया । 🙁
घुघूती बासूती
यह तो है ही; जब मामले मैनेज करने की सीमा से परे हो जायेँ तो मामले नहीं आंकड़े बन जाते हैं। और आंकड़े मैनेज करने का तरीका दूसरा है। सम्वेदन शून्य; फौरी और कुछ हद तक छद्म वाला।
आप विषय को सेण्टर स्टेज ला रहे हैँ – यह अच्छा है।