DwonloadDownload Point responsive WP Theme for FREE!

अपराधों के अन्वेषण, अभियोजन और अदालतों की पर्याप्तता और स्वतंत्रता-स्वायत्तता के बारे में सोचा जाना जरूरी है


एस. एन. विनोद जो नागपुर के प्रधान संपादक दैनिक ‘राष्ट्रप्रकाश’ एवं समूह संपादक- मराठी ‘दैनिक देशोन्नती’  ने अपने ब्लाग चीरफाड़ पर अपने आलेख फिर फैसला हुआ, न्याय नहीं ! में अनायास ही अपराध नियंत्रण से संबंधित कुछ  महत्वपूर्ण विषयों को उठाया है और बहस को एक नयी दिशा दी है। अपराध नियंत्रण राज्य का मसला है। लेकिन जो बात उन्हों  ने यहाँ कही है वह शिद्दत से सभी महसूस करते हैं।  वास्तविकता यह है कि अदालतों का अन्वेषण करने वाली एजेन्सिय़ों पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं है। अधिकतर अपराध अन्वेषण वही पुलिस करती है जिस पर भ्रष्ट राजनितिज्ञों और नौकरशाहों का नियंत्रण है जिन्हें आसानी से थैलियाँ प्रभावित कर लेती हैं।  नतीजा यह होता है कि अपराधी बच निकलते हैं।  अपराध नियंत्रण की जो व्यवस्था पुलिस, अभियोजक और न्यायालय के माध्यम से बनी है वस्तुतः उस का अपराधियों पर कोई असर नहीं है।  भारत संपन्न अपराधियों के लिए स्वर्ग बना हुआ है। यहाँ तक कि वे राजनीति और प्रशासन पर एक हद तक नियंत्रण रखते हैं।

आज स्थिति यह हो गई है कि अपराध होते हैं लेकिन पुलिस उन की प्रथम सूचना तक दर्ज करने से कतराती है।  उस का प्रयत्न होता है कि कम से कम अपराध दर्ज हों।  कानून और व्यवस्था राज्यों का विषय है और सभी राज्यों की सरकारें अपने यहाँ अपराधों की संख्या कम प्रदर्शित करने की नीति पर चलते हुए पुलिस की इस प्रवृत्ति का समर्थन करती है।  अनेक बार देखा गया है कि अपराध घटित होने के बाद उस की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए भी राजनीतिज्ञों और आंदोलनों का सहारा लेना पड़ता है।  पुलिस का कथन है कि उन के पास अपराधों के अन्वेषण के लिए पर्याप्त बल और साधन नहीं हैं। अधिकांश पुलिस बल कानून और व्यवस्था बनाए रखने तथा राजनीतिज्ञों की सुरक्षा और सेवा में लग जाता है।

दूसरी और लगभग पूरे देश में अभियोजन चलाने की जिम्मेदारी उठाने वाली मशीनरी का पुलिस के साथ कोई बेहतर तालमेल नहीं है।  अधिकांश अदालतों में अभियोजन गैर हाजिर नजर आता है जिसका बोझा अदालतों को उठाना पड़ता है।  पुलिस आरोप पत्र प्रस्तुत करने की जल्दी में गवाहों के फर्जी बयान लिख लेती है या अपनी कहानी गवाहों के मुहँ में ठूँसने का प्रयत्न करती है।  इस का नतीजा यह होता है कि गवाह अदालत में मुकर जाते हैं और अपराधी शान से बरी हो कर समाज में अपनी धाक और धौंस जमाने लगता है।  उन में से कुछ लोग तो कुछ दिन बाद ही राजनैतिक मंचो पर और यहाँ तक कि विधानसभाओं और संसद में नजार आने लगते हैं।

जब तक अपराध अन्वेषण और अभियोजन के काम स्वतंत्र स्वायत्त संगठनों के पास न हों और उन पर अदालतों और उस के बाद विधायिका का नियंत्रण न हो, तब तक इस दशा को सही

One Comment