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एक ने आजीवन कारावास की सजा दी, दूसरे ने बरी कर दिया

आप को यह जान कर हैरत होगी कि एक व्यक्ति को अदालत ने दहेज उत्पीड़न और पत्नी की हत्या के जुर्म में सजा दी, उस के मामले को उच्च न्यायालय की दो खंडपीठों ने अलग अलग सुना; एक ने सजा सुना दी और दूसरी ने बरी कर दिया।

यह हुआ आन्ध्र प्रदेश उच्चन्यायालय में। 13 अप्रेल, 2003 को अब्दुल रहीम नाम का आदमी आदिलाबाद जिले के भैंसा पुलिस स्टेशन पहुँचा और अपने दामाद के विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई कि मैं ने अपनी बेटी रईसा बेगम की शादी 17.04.2000 को अहमद पाशा से की थी और 15000 रुपए नकद, सोने के जेवरात और घर का सामान दहेज में दिया था। लेकिन अहमद पाशा ने शादी के पन्द्रह दिन बाद से ही मेरी बेटी को और दहेज लाने के लिए प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। मैं ने उसे दो बार तीन तीन हजार रुपए दिए लेकिन तीसरी बार उस के मांगने पर दस हजार रुपए नहीं दे पाया। मुझे अहमद के घर से फोन आया कि रईसा मर गई है।

पुलिस ने रईसा के शव का पोस्टमार्टम कराया और अहमद के खिलाफ आरोप पत्र अदालत में दाखिल कर दिया। मुकदमें में सेशन अदालत ने उसे हत्या का दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई और 1000 रुपया जुर्माने की और प्रताड़ना के ले तीन साल की कैद और 500 रुपया जुरमाना की सजा अलग से सुनाई।

अहमद जेल में सजा भुगतने चला गया। इस बीच उस के रिश्तेदारों ने हैदराबाद में वकील किया और एक अपील उस की ओर से उच्च न्यायालय में दाखिल करवा दी। लगभग उसी समय अहमद ने जेल से उच्च न्यायालय को पत्र लिखा कि वह अपील करना चाहता है उसे वकील करवाया जाए।

अहमद के रिश्तेदारों द्वारा दायर कराई गई अपील की न्यायमूर्ति ए गोपाल रेड्डी और न्यायमूर्ति बी शेषसेना रेड्डी की खण्डपीठ ने सुनवाई की जिस में अहमद को 7 मार्च, 2008 को दोषी मानते हुए सजा को बहाल रखा और अपील को खारिज कर दिया। जब कि अहमद की जेल से की गई अपील पर न्यायमूर्ति डी एस ई वर्मा और न्यायमूर्ति के सी भानु ने सुनवाई की और 29 सितम्बर, 2008 को फैसला देते हुए उसे हत्या के आरोप से दोषमुक्त कर दिया।

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