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क्या बिना वकील के मुकदमा किया जा सकता है?

क्या बिना वकील के मुकदमा किया जा सकता है?

-अनिरुद्ध सिंह, बांदा, उत्तर प्रदेश

स प्रश्न का उत्तर ‘हाँ’ भी हो सकता है और ‘ना’ भी। वस्तुतः कानून इस बात की इजाजत देता है कि कोई भी व्यक्ति बिना किसी वकील को नियुक्त किए न्यायालय के समक्ष अपना मुकदमा प्रस्तुत कर सकता है और स्वयं ही उस की पैरवी भी कर सकता है। न्यायालय किसी भी व्यक्ति को उसका मुकदमा स्वयं प्रस्तुत करने और उस में पैरवी  करने की अनुमति देता है। लेकिन यह केवल कानून की किताब तक सीमित है।

किसी व्यक्ति को मुकदमा प्रस्तुत करने के लिए उसे उन सब कानूनों का ज्ञान होना आवश्यक है जिन का उपयोग उस मुकदमे को प्रस्तुत करने और उस की पैरवी करने के लिए होने वाला है। उदाहरण के रूप में आपने किसी को रुपया दिया है या किसी से आप को रुपया लेना है और इस के लिए वह आप को एक वचन पत्र (promissory note) लिख कर देता है लेकिन वचन पत्र के अनुसार आप को रुपया नहीं देता है। वैसी स्थिति में आप वचन पत्र के आधार पर रुपया वसूली का वाद प्रस्तुत कर सकते हैं। इस के लिए आप को सब से पहले वाद पत्र लिखना आना चाहिए। आप को पता होना चाहिए कि वाद पत्र की रचना कैसे की जाती है, उस में क्या क्या तथ्य किस तरह और कहाँ लिखे जाने चाहिए, आदि आदि। फिर आप को यह पता होना चाहिए कि उस पर कितनी न्याय शुल्क अदा करनी होगी। कौन से प्रपत्र प्रतिवादी को समन करने के लिए भेजे जाने हैं। उन्हें कैसे भरना है? इस तरह के अनेक प्रश्नों से आप को जूझना होगा। यह वाद दीवानी प्रक्रिया के किन किन उपबंधों के अधीन प्रस्तुत किया जाना है? फिर उस मुकदमे की प्रकिया क्या होगी? हर कदम पर आप के सामने इतने सवाल होंगे कि किसी तरह आप ने वाद पत्र तैयार कर के न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर भी दिया तो भी एक दो पेशियों के उपरान्त आप को समझ आ जाएगा कि एक अच्छे वकील की मदद के बिना मुकदमा नहीं लड़ा जा सकता है।

म तौर पर परिवार न्यायालयों में वकील का प्रवेश वर्जित है और सभी मुकदमे स्वयं पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत किये जाते है और पक्षकारों द्वारा ही प्रतिवाद किया जा सकता है। लेकिन कोई भी मुकदमा इन न्यायालयों में ऐसा प्रस्तुत नहीं होता है जिस में वकील की सहायता प्राप्त नहीं की जाती हो। बल्कि वकील की अनुपस्थिति के कारण पक्षकारों को बहुत हानियाँ उठानी पड़ती हैं। यहाँ तक कि न्यायालय स्वयं ही यह मानता है कि कोई मुकदमा वकील के बिना चल ही नहीं सकता और परिवार न्यायालयों के मामले में स्वयं परिवार न्यायालय ही यह सलाह देता है कि पक्षकार वकील की सलाह और सहायता प्राप्त करे। मैं ने एक महिला का भरण पोषण का मुकदमा हिन्दू दत्तक एवं भरण पोषण अधिनियम की धारा-18 के अन्तर्गत तैयार करवाया और महिला को परिवार  न्यायालय में प्रस्तुत करने भेजा। घंटे भर बाद महिला वाद पत्र वापस ले कर आई और कहने लगी कि अदालत ने कहा है कि वकील से यह लिखवा कर लाओ कि यह मुकदमा किस कानून की किस धारा में प्रस्तुत किया गया है। मुझे कानून बनाने वालों और अदालत पर बड़ा क्रोध आया कि उन्हों ने वकील के प्रवेश को परिवार न्यायालय में क्यो निषिद्द किया है, और निषिद्ध किया है तो न्यायालय स्वयं पक्षकार की मदद क्यों नहीं करता है?  मैं न्यायालय के न्यायाधीश से मिला और उन्हें कहा कि जब वकील का इस न्यायालय में निषेध किया है तो वे पक्षकारों की स्वयं मदद क्यों नहीं करते?  तो न्यायाधीश का कहना था कि आप भी जानते हैं और हम भी कि वकील के बिना कोई अदालत नहीं चल सकती। लेकिन कानून से मजबूर हैं कि आप की उपस्थिति नहीं लिख सकते। वास्तविकता तो यह है कि वकील के बिना अदालत एक कदम नहीं चल सकती। पक्षकार अदालत की भाषा नहीं समझ सकता और अदालत पक्षकार की।

सलिए यदि कोई यह सोचता है कि वकील के बिना मुकदमा लड़ा जा सकता है तो गलत सोचता है। यदि इस सोच के अंतर्गत वह मुकदमा कर भी दे तो भी उसे किसी न किसी स्तर पर जा कर वकील की मदद लेने के लिए बाध्य होना ही पड़ता है।

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