देश के लिए गर्व भी और शर्मनाक भी
|लोकेश जी के ब्लॉग “अदालत” की खबर “चीन भारत के न्यायिक माडल से सीखने का इच्छुक!” हम भारतियों के लिये गर्व करने लायक है और शर्मनाक भी।
गर्व की बात है कि चीन हमारी न्याय प्रणाली के कारगर तंत्र से प्रभावित है उस की कार्य पद्यति से और उसे जल्द से जल्द सीखना चाहता है। यह सही भी है कि भारतीय न्याय प्रणाली से देरी के तत्व को हटा दें तो यह विश्व की श्रेष्ठ न्याय प्रणालियों में सम्मिलित की जा सकती है।
लेकिन इसी समाचार में यह भी बताया गया है कि चीन में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 300 है, जब कि इस की तुलना में हमारे भारत के उच्चतम न्यायालय में मात्र 26 न्यायाधीश है। यह हमारे लिए शर्मनाक बात है कि हमार देश ने चीन से तीन बरस पूर्व साम्राज्यवाद से मुक्ति प्राप्त की लेकिन हम देश में इतनी अदालतें कायम नहीं कर पाए कि मुकदमों का शीघ्र निस्तारण कर समय से न्याय प्रदान किया जा सके। शीघ्र और समय से नहीं किया गया न्याय न्याय नहीं है।
चीन और भारत की जनसंख्या लगभग बराबर है। अगर वास्तव में देश में शीघ्र न्याय उपलब्ध कराना है तो न्यायाधीशों की संख्या हमें भी बढ़ानी पड़ेगी। यह काम निचली अदालतों से ही प्रारंभ किया जा सकता है। पहले निचली अदालतों की संख्या इतनी की जा सके कि उन में से किसी में भी एक समय में पाँच सौ से अधिक मुकदमे लम्बित नहीं रहें। इस के उपरांत सीढ़ी दर सीढ़ी प्रत्येक स्तर की अदालतों की संख्या बढ़ाई जाए। जिस से ऊपर के स्तर की अदालतों को अनुभवी जज उपलब्ध हो सकें।
हमें यहाँ इस बात में भी फर्क करना पड़ेगा कि भारत की न्याय पालिका ने न्यूनतम साधनों की उपलब्धता के बावजूद भी न्याय के स्तर को बनाए रखा है। इस के लिए हमारी न्यायपालिका पर हम गर्व कर सकते हैं।
लेकिन दूसरी और हमें अब तक की केन्द्र सरकारों और राज्य सरकारों पर शर्म भी आनी चाहिए कि वे न्याय पालिका को सक्षम आकार की बनाने के लिए वित्त उपलब्ध नहीं करा सकी हैं। इस में दोष देश के वकील समुदाय का भी है जो राजनीति में अच्छा दखल रखते हुए भी सरकारों पर इस के लिए दबाव नहीं बना सका है।
आज भी वकील समुदाय चेतन हो, तो इस काम को कर सकता है। सरकारों को इस और प्रवृत्त करने के काम को केवल यह समुदाय ही कर सकता है। और यह समुदाय उठ खड़ा हो तो इस काम में उसे जनता का भी भरपूर सहयोग प्राप्त होगा।
क्या आम आदमी किसी जज से किसी जजमेंट के बारे मे कोई सवाल पूछ सकता हे
जैसे की बिलकुल एक जैसे मुकदमे मे किसी को सज़ा ३ साल तो किसी को १० या ७ साल हुई है ऐसे क्यों होता हे यह सवाल कई बार मेरे दिमाग मे आता हे क्या यह जनता को पूछने का अधिकार हे
बहुत बहुत धन्यवाद आप के लेखो से काफ़ी जान कारी मिलती हे, मुझे तो अदलतो का रास्ता भी नही मालूम,लेकिन आप के लेख पढ्ने लायक लगे अब सभी पढ्ने शुरु किये हे,
न्याय-प्रणाली में सुधार की आवश्यकता शायद सबसे ज्यादा है लेकिन इस बात पर चर्चा सबसे कम होती है. देश की जनता को बाकी चीजें और सहूलियतें मुहैया कराने में न्याय-प्रणाली की भूमिका आने वाले दिनों में ज्यादा होनी चाहिए. लेकिन समस्या यह है कि न्याय-प्रणाली में ही सुधार नहीं हो रहे.
आर्थिक सुधारों का विरोध करने में उर्जा नष्ट हो रही है. उसी में से कुछ उर्जा न्याय-प्रणाली में सुधारे लाने की जरूरतों पर खर्च की जाय तो शायद ज्यादा अच्छा हो.
“शीघ्र और समय से नहीं किया गया न्याय न्याय नहीं है।” – पूर्णत: सहमति है इससे। न्यायधीशों की संख्या बढ़ना एक महत्वपूर्ण पक्ष है – जो आपका ब्लॉग सतत पढ़ने पर स्पष्ट होता जा रहा है।
पर और भी areas of improvement होंगे। उन पर भी ज्ञान वर्धन करें।