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न्याय प्राप्ति एक दुःस्वप्न …पूर्व मुख्य न्यायाधीश वी.एन.खरे

भारत में न्याय प्राप्ति का स्वप्न एक दुःस्वप्न बन चुका है। उस का कारण न्याय प्राप्ति में देरी है। हर वर्ष सरकार उस के लिए अनेक कदम उठाती है लेकिन मूल कारण अदालतों और जजों की कमी को समाप्त करने में वह स्वयं को अक्षम पाती है। इस समस्या और न्याय पालिका से संबद्ध अन्य मामलों पर वर्षारंभ पर उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट श्री वीएन खरे ने अपने विचार प्रकट किए हैं। देखिए वे क्या कहते हैं? …

यक्ष प्रश्न

स साल भी आम आदमी को राहत नहीं मिली। साल की शुरुआत में न्यायपालिका के सामने एक यक्ष प्रश्न था कि आखिर कब तक मामले टलते रहेंगे? साल के अंत में भी यह सवाल अपनी जगह पर कायम है। टू-जी स्पेक्ट्रम आबंटन, काला धन, सीवीसी की नियुक्ति, बेल्लारी खनन घोटाला, गोदामों में अनाज का सड़ना, भू-अधिग्रहण और सलवा जुडुम जैसे मसले साल भर सुर्खियों में रहे। जाहिर है, इस साल को न्यायिक सक्रियता (कुछ लोगों के मुताबिक अति सक्रियता) के तौर पर याद किया जा सकता है, पर चुनौतियां बदस्तूर बनी हुई हैं। पहली चुनौती है कि मौजूदा न्याय प्रणाली साल भर मानव संसाधन की कमी से जूझती रही। यह एक बड़ी वजह है, जिससे हमारे यहां न्यायिक फैसले लंबित रहते हैं। हमारे देश में प्रति दस लाख की आबादी पर महज 13.5 न्यायाधीश हैं। यह अनुपात काफी कम है, जबकि पश्चिमी देशों में यह अनुपात 140 से लेकर 150 के बीच में है। इससे देश की न्यायिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसमें दो-राय नहीं कि याचिका से लेकर सुनवाई, कानूनी प्रक्रिया और फैसले तक पहुंचते-पहुंचते एक लंबा वक्त गुजर जाता है। बावजूद इसके लोग इंसाफ से दूर ही रहते हैं, क्योंकि एक न्यायाधीश एक बार में कई फैसलों को निपटाता है। जब  मैं सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायाधीश था, तो सुझाव दिया था कि इस अनुपात  को कम से कम 40 किया जाए। पर इससे जो आर्थिक बोझ बढ़ेंगे, उसे सहने को हमारी व्यवस्था तैयार नहीं है। आज हालत यह है कि देश भर के 21 हाईकोर्ट में कुल 895 जजों के पद हैं, जिनमें से 285 रिक्त हैं। दूसरी तरफ, हर साल याचिका व मुकदमों को दर्ज कराने की सूची लंबी होती जा रही है। अनुमानत: भारत के एक छोटे-से शहर में दुर्घटना के 25 मामले रोज दर्ज होते हैं। अपने यहां अपराध की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। इस वजह से आपराधिक मुकदमे बढ़े हैं। इस तरह से एक जिले में प्रत्येक साल रेप, मर्डर, डकैती व हादसों की हजारों रिपोर्टे दर्ज होती हैं। फिर इसके बाद वित्तीय अनियमितताओं की मोटी फाइलें हैं। इनमें सबसे सामान्य है, चेक बाउंस का मामला।  देखा जाए, तो मौजूदा वक्त में लगभग 20 लाख मामले चेक बाउंस के ही हैं। ये सब देखते हुए कहा जा सकता है कि आम आदमी को अगर त्वरित न्याय देना है, तो जजों की और नियुक्तियां करनी होगी।

इन्फ्रास्ट्रक्चर

दूसरी चुनौती इंफ्रास्ट्रक्चर की है। जब एपीजे कलाम हमारे राष्ट्रपति थे, तो उनसे मेरी एक बार इस सिलसिले में बात हुई। मैंने उनसे पूछा, ‘क्या निर्णय लेने की प्रक्रिया में कंप्यूटर शामिल नहीं हो सकता है?’ वह हंसने लगे, उन्होंने कहा कि  इंसाफ देने का काम तो इंसान ही कर सकता है, कंप्यूटर तो हमारी सहूलियत के लिए है। इससे हमारी प्रक्रिया में बस तेजी आ सकती है, लेकिन इस दिशा में खर्च की जरूरत है। आप निचली अदालतों में जाएं, तो पता पड़ेगा कि जज पेड़ के नीचे बैठकर खुले मैदान में सुनवाई कर रहे हैं।  जिस तरह से मुक्त अर्थव्यवस्था को हमने प्रश्रय दिया, उस अनुपात में न्याय  प्रणाली के बुनियादी ढांचे का विकास नहीं हुआ। हां, कोर्ट-कचहरी से उम्मीदें जरूर बढ़ गईं।

भ्रष्टाचार और लोकपाल

साल भर भ्रष्टाचार का मुद्दा गरम रहा। जितने भ्रष्टाचार के मामले आए, उतनी ही सशक्त मांग लोकपाल की बढ़ी। देश की दूसरी व्यवस्थाओं की तरह न्यायपालिका  के लिए भी यह अहम चुनौती है। हालांकि बीते वर्ष की तुलना में हालात ठीक  थे, क्योंकि उस वक्त न्यायाधीशों की संपत्ति को सार्वजनिक करने का मसला गरमाया हुआ था। जहां तक बात लोकपाल के दायरे में न्यायपालिका को लाने की  तो मैं इससे कतई सहमत नहीं हूं। न्यायपालिका की जवाबदेही एक अलग विषय है और इसे लोकपाल की छतरी के नीचे लाना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इससे न्यायपालिका की निष्पक्षता खत्म हो सकती है और लोकपाल के आने भर से ही पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हो जाएगी। आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू ने लॉर्ड माउंटबेटन को कहा था कि मैं इससे चिंतित हूं कि हमारे यहां भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हैं। माउंटबेटन ने कहा, अगर घर की सफाई करनी है, तो छत से करो। इससे दो बातें साफ हो जाती हैं। पहली, भ्रष्टाचार आजादी के वक्त भी चिंता का विषय था और दूसरा, जब तक व्यवस्था के ऊपर के पायदान को रिश्वतखोरी से मुक्त नहीं किया जाएगा, तब तक वह खत्म नहीं हो सकता। फिर चाहे कोई भी विधेयक क्यों न आ जाए। इसी तरह न्यायपालिका से भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए एक अलग प्रणाली विकसित करनी होगी। जब प्रत्येक नागरिक कुदरती  तौर पर जवाबदेह है, तो व्यवस्थागत सुधार के जरिये जजों की जवाबदेही तो सुनिश्चित होनी ही चाहिए। न्यायिक पारदर्शिता की दिशा में हम इस साल आगे बढ़े जरूर हैं। लेकिन एक बड़ी समस्या यह है कि न्यायिक फैसले अंग्रेजी भाषा  में अंकित होते हैं, जिसे आम आदमी खुद न तो पढ़ पाता है और न समझ पाता है।  इसलिए न्यायिक फैसलों को हिंदी में उपलब्ध कराया जाए। इससे पारदर्शिता बढ़ेगी।

सब कुछ सरकार और उस के प्रशासन पर निर्भर

स साल हमने देखा कि अनाज सड़ने से लेकर काले धन तक के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने विधायिका व कार्यपालिका को दिशा-निर्देश दिए। मीडिया ने इस प्रवृत्ति को न्यायिक सक्रियता का नाम दिया है। जबकि कुछ लोग इसे अति सक्रियता कह रहे हैं। खैर, यह खुशी की बात है कि हमारी न्याय प्रणाली सजग है और वह जनहित के मुद्दों को सुन रही है। वरना यों ही जमीन अधिग्रहण के मसले पर किसान के पक्ष में व्यावहारिक फैसले नहीं आते। इस मामले पर मेरा बस  इतना ही कहना है कि इसे अहं के टकराव के तौर पर नहीं देखा जाए, बल्कि इसे ‘चेक ऐंड बैलेंस’ समझों।

सब कुछ निर्भर सरकार के प्रशासन पर

साल बीतने को है और हम टू-जी स्पेक्ट्रम, ग्रेटर नोएडा जमीन विवाद जैसे मुद्दों की चर्चा न करें, यह नहीं हो सकता है। जमीन अधिग्रहण जैसे मसलों पर  हमें और व्यावहारिक नीति अपनानी होगी। एक ऐसे कानून की जरूरत है, जो किसानों को जमीन के बदले उचित मुआवजा दिलाए और उनके भविष्य को सुरक्षित रखे। हम जानते हैं कि मुआवजे की रकम उम्र भर नहीं रहती, इसलिए सरकार किसानों को फ्यूचर बॉन्ड मुहैया कराए। टू-जी स्पेक्ट्रम के कथित घपलों ने सोती हुई जनता को जगाया है। इसलिए सरकारी आबंटनों के लिए भी एक ठोस कानून बनाने होंगे, जिसका सिद्धांत हो ‘वन लाइन ऑक्शन।’ इसमें बोली लगाने वाली कंपनियों की हैसियत आंकने के लिए बैंक गारंटी को जमा करना अनिवार्य किया जाए। काला धन व मनी लॉड्रिंग एक बड़ा मसला है। इसके लिए हमें संबंधित देश  के साथ पुरानी संधियों को बदलने पर जोर देना होगा। अगर हमने अपने कार्यान्वयन को दुरुस्त नहीं किया, तो ये चुनौतियां अगले साल भी कायम रहेंगी। कानून बनने भर से हालात नहीं सुधरेंगे,  उनके अमल पर भी जोर देना होगा। यह प्रशासन के हाथ में है।