स्वतंत्रता का मूल अधिकार (1)
|अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त अधिकार केवल नागरिकों को ही प्राप्त हैं। जो व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है वह इन अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकता। भारत में पंजीकृत कोई कंपनी भी इन का उपयोग नहीं कर सकती क्यों कि वह नागरिक नहीं हो सकती है।
अनेक बार लोग यह समझ बैठते हैं कि ये नागरिक स्वतंत्रताएँ असीमित हैं। किसी भी देश के नागरिकों के अधिकार असीमित नहीं हो सकते। एक व्यवस्थित समाज में ही अधिकारों का अस्तित्व बना रह सकता है। इस कारण से नागरिकों को ऐसे अधिकार प्रदान नहीं किए जा सकते जो पूरे समाज के लिए अहितकर सिद्ध हो जाएँ। यदि इन अधिकारों पर कोई निर्बंधन या नियंत्रण (Restriction) न रहे तो उस का परिणाम समाज के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। स्वतंत्रता का अस्तित्व तब तक ही संभव हो सकता है जब तक कि वे कानून द्वारा सयंमित रहें। कोई भी नागरिक को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों को आघात नहीं पहुँचाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने ए.के.गोपालन ( एआईआर 1951 सुप्रीम कोर्ट) के मामले में कहा कि “मनुष्य एक विचारशील प्राणी होने के कारण बहुत सी वस्तुओं की इच्छा रखता है, लेकिन एक नागरिक समाज में उसे अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना पड़ता है और दूसरों का आदर करना पड़ता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 19 के खंड (2) से (6) के अधीन राज्य को ‘लोकहित’ में आवश्यक किंतु युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने की शक्ति प्रदान की गई है।” इस तरह इन निर्बंधनों को लगाने की दो शर्तें हैं। पहली तो यह कि वे केवल अनुच्छेद 19 के खंड (2) से (6) में वर्णित आधारों पर ही लगाई जा सकती हैं और दूसरा यह कि उन का युक्तियुक्त होना आवश्यक है।
अगले आलेख में हम देखेंगे कि ये युक्तियुक्त निर्बंधन क्या हैं?…………….(क्रमशः)
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आभार. एक बार फिर पढाई चालू!
नागरिकशास्त्र कि किताब याद आ रही है 🙂 अधिकारों के साथ साथ कर्तव्यों को जानना भी जरूरी है.
ज्ञानवर्धक पोस्ट .
बहुत सुक्षम ढंग से आप ने मूल अधिकारो के बारे समझाया,
धन्यवाद
मूल अधिकार और सह अस्तित्व, यही संविधान की मूल भावना भी है.
बहुत विस्तार से मूल अधिकारों के बारे में बताने के लिए आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
मूल अधिकारों के बारे में पढा तो था ..मगर इस तरह से विस्तृत व्याख्या …अच्छी लग रही है..अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी…..