अदालतों की संख्या बढ़ाना न्यायिक सुधारों का प्राथमिक कदम है
|बेचारगी न्यायपालिका की आलेख तीसरा खंबा में साल भर पहले प्रकाशित हुआ था। इस पर आज दो टिप्पणियाँ मिली। इन में एक श्री अजय कुमार झा की थी। जिस में उन्हों ने कहा था कि अभी सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की जो संख्या बढ़ाई गई है उन की नियुक्ति इस लिए नहीं हो रही है कि उन के आवास ही तैयार नहीं हैं। तो यह तो ठीक है। कागज पर न्यायाधीशों की संख्या बढा़ने से कुछ नहीं होगा। उन के लिए साधन तो जुटाने ही होंगे। उन्हो ने सीधे सीधे यह सवाल भी उठाया था कि जब दंड प्रक्रिया संहिता में सकारात्मक संशोधन किए गए तो वकीलों ने उस का विरोध क्यों किया? इस बात का उत्तर गहरी विवेचना मांगता है जिस का उत्तर मैं अगले किसी आलेख में देने का प्रयास करूंगा।
दूसरी टिप्पणी श्री सोमेश्वर की थी जो इस तरह है …..
“मात्र अदालतों की संख्या बढ़ जाने से समस्या हल नहीं हो सकती, इसके लिये न्यायिक प्रक्रिया में सुधार तथा वकीलों द्वारा सहयोग भी अपेक्षित है”
मैं श्री सोमेश्वर जी की बात से सहमत हूँ। लेकिन इस बात पर हमेशा जोर देता हूँ और जोर देता रहूँगा कि अदालतों की संख्या पर्याप्त से कुछ अधिक होनी चाहिए। न्याय एक ऐसा काम है जो जल्दबाजी और हड़बड़ाहट में नहीं होना चाहिए। न्यायाधीश का सारा ध्यान मुकदमे की हर बात पर होना चाहिए। मान लीजिए किसी साक्षी को परीक्षित किया जा रहा है। उस के बयान होने के समय न्यायाधीश का सारा ध्यान गवाह पर होना चाहिए, कि उस के हाव-भाव कैसे हैं? प्रश्न के प्रति उस की प्रतिक्रिया कैसी रही? आदि आदि। इसी तरह जब वकील न्यायाधीश के समक्ष अपने तर्क प्रस्तुत करें तो उन्हें वह ध्यान से ग्रहण करे। बीच में कुछ प्रश्न और शंकाएँ उठें तो उन्हें भी वह वकीलों के सामने रखते हुए उन प्रश्नों और शंकाओं का जवाब प्राप्त करे। न्याय एक तरफा कार्य नहीं है। वह एक द्वंद्वात्मक कार्य है जहाँ न्यायाधीश को वाद और प्रतिवाद के बीच संवाद खोजना पड़ता है। फिर न्याय होने पर वादी और प्रतिवादी, अभियोजक और अभियुक्त को अंदर से यह महसूस होना चाहिए कि वाकई न्याय हुआ है तभी न्याय का सम्मान और गरिमा बनी रह सकती है। यह नहीं कि एक अभियुक्त यह सोचे कि उस ने कैसे न्यायाधीश और न्याय की प्रक्रिया में सम्मिलित लोगों को बेवकूफ बनाया और खुद को बचा लिया। इस से उस की खुद की निगाह में भी न्याय का कोई सम्मान नहीं रहता है।
लेकिन अभी क्या हो रहा है? जिस मुकदमे का निर्णय तीन माह में होना चाहिए उसे बीस वर्ष लग रहे हैं। न्यायालयों पर इतना दबाव है कि न्यायाधीश वकीलों की बहस सुन रहा है। चार वकील पीछे खड़े हैं कि कब न्यायाधीश का ध्यान बहस से हटे और वे अपने मुकदमे की ओर उस का ध्यान आकर्षित करें। रीडर कुछ मुकदॉमों में जवाब आदि ले रहा है और मनमानी तारीखें दे रहा है। एक टाइपिस्ट अलग बैठा किसी गवाह के बयान दर्ज कर रहा है। यदि अदालत को दो टाइपिस्टों की सुविधा है तो दोनों एक साथ गवाहों के बयान दर्ज कर रहे हैं। जिन पर जज का कोई ध्यान नहीं है। जब कि कानून यह कहता है कि गवाही खुद न्यायाधीश को अंकित करनी चाहिए या फिर खुद बोल कर टाइपिस्ट को लिखानी चाहिए। कुछ मामलों में गवाह के बयान का सार न्यायाधीश को खुद या बोल कर टाइपिस्ट को लिखाना चाहिए। जब कि हो यह रहा है कि गवाही कैसे हुई य
@MRP
आप का अनुभव कुछ न्यायालयों के बारे में हो सकता है लेकिन औसतन सभी न्यायालयों के बारे में नहीं। सभी न्यायाधीश राजस्थान में उन्हें दिए गए काम से लगभग दुगना काम कर रहे हैं। नतीजा यह है कि गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। यदि आप की बात सही है तो उस के आंकड़े जरूर बताएँ।
न्यायधीश भी पक्षकारों को तंग करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं |परिवाद मौखिक हो सकता है किन्तु यदि पक्षकार मौखिक परिवाद दर्ज करवाना चाहे तो उसे लिखित में देने के लिए कहा जाता है और लोक सेवक के आचरण के विषय में दण्ड प्र सं की धारा २९५ के अंतर्गत लिखित शपथ पत्र देना चाहे तो उसे बयान देने के लिए कहा जाता है | हमारी न्याय व्यवस्था की ये कुछ बानगियाँ हैं |
अनुभव से ज्ञात है कि राजस्थान में औसतन न्यायधीश गण न्यायलय में २ घंटे से अधिक प्रतिदिन न्यायलय में नहीं बैठते हैं | यह स्थिति निचले स्तर से लेकर उच्च न्यायलय , उपभोक्ता आयोग तक में प्रचलित है | एक ही संविधान , साक्ष्य कानून , दण्ड संहिता , दण्ड प्रक्रिया संहिता , व्यवहार प्रक्रिया संहिता के बावजूद राजस्थान के न्यायलय अपनी मनमानी व स्वयम्भू प्रक्रिया अपनाकर दक्षिण भारत के न्यायलयों से मात्र पांचवां हिस्सा कार्य कर रहे हैं | उत्तर भारत के अन्य न्यायालयों की स्थिति भी अच्छी नहीं है | न्यायालयों में स्टाफ की बजाय अनुशासन और उत्पादकता बढ़ाये जाने की आवश्यकता है |
I don’t know who you wrote this for but you helped a brehotr out.
श्री द्विवेदी जी,
आप के विचारो से असहमत नही हो सकते हॆ, किन्तु हमे अदालतो की तादाद मे बढ़ोतरी से पहले “पुरानी लीक” को “नई सोच” से बदलना पडेगा, साथ ही सर्वोच्च स्तर से अधीनस्थ स्तर की ओर अदालतो की सख्या बढ़ानी चहिये, पुराना अनुभव बताता हॆ कि फ़ास्टट्रेक कोर्टो ने 150% की दर से निस्पादन कर निचले स्तर पर अपराधिक मामलॊ मे पेन्डेन्सी को तो कम कर दिया हॆ किन्तु उच्च स्तर पर अपीलो मे काफ़ी इजाफ़ा कर दिया हॆ, जबकि आज के हालात मे उच्च न्यायालयॊ मे pendency overload की समस्या अत्यन्त गम्भीर हो चुकी हॆ
aap ka blog bahut hi upyogi hai.kanuni maslo ki sahaj prastutu ke liye badhai!
आशा है आगे चल कर यह कानूनी प्रक्रिया को तेज बनाएगा और कम इंतजार में ही फैसले आ जाया करेंगे.
यह एक स्वागतयोग्य कदम है। इससे न्याय मिलने की प्रक्रिया निश्चित रूप से तेज होगी।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
वकील भाई भी न्याय के लिए काम करें तो न्याय ज़्यादा पुष्ट हो सकता है। लेकिन वकालत को तो एक प्रोफैशन के तौर पर लिया जाता है और वकील भाई अपनी पूरी ताकत क्रिमिनल को बचाने में लगा देते हैं,असलियत दोनो पक्षों को पता होती है लेकिन आईपीसी की धाराएं सिर्फ मुल्ज़िम को बचाने के लिए खंगाली जाती है चाहे वो मुल्ज़िम असल में ही मुजरिम हो। फिर भी बाईज़्ज़त बरी हो जाता है। और कई बार वकील भाई ही अपने क्लाईंट को बचाने के लिए केस को लम्बा करने के भरपूर प्रयास कर देते हैं। ऐसे में न्यायपालिका को की मज़बूत करना चाहिए मेरी राय में और केस के दाखिल होते समय ही उस की स्क्रूटिनी किये जाने के बाद यहाँ तय हो जाना चाहिए कि केस लगभग किस अवधि तक खत्म किया जाए। अगर ऐसा हो तो लोग भी ख़ुशी-ख़ुशी न्याय के लिए न्यायालय जाएंगे वरना मुझ जैसे दब्बू और संसाधन रहित लोग तो इसी चक्कर में न्यायालय नहीं जाते कि छोड़ो कौन चक्कर काटे ख़ुद ही कड़्वे घूंट पी लेते हैं। एक गाड़ी का चालान कट जाए चाहे इसमें गलती पुलिस वाले की ही हो कि उसने आवेश या किसी खुंदक में आकर चालान काट दिया लेकिन उसके लिये भी एक आम नागरिक को पूरा-पूरा दिन कचहरी में ज्म्हाईयाँ लेनी पड़ती है जबकि उसे पता होता है कि उसकी दलील सुने बगैर फाईन तो होना ही है।
सादर!
आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ.
घुघूती बासूती
आपने उदारता बरत ली। यदि सौ मुकदमे जज साहब के सामने हैं तो पचास में नहीं, अस्सी में तारीख बढती है। कभी-कभी तो इससे भी अधिक में।
आपकी बाकी बातें तो पहली ही नजर में गले उतर जाती हैं।
आपने सौ प्रतिशत सच कहा है,
रामराम.
अपराधों और
अपराधियों की
तेजी से बढ़ोतरी
को देखते हुए
अदालतों की
थमी हुई संख्या
शोचनीय है।