आखिर प्रधानमंत्री ने माना कि अदालतें बहुत कम हैं
|तीसरा खंबा ने अपने पहले ही आलेख “न्याय व्यवस्था की आलोचना” से यह बताना प्रारम्भ कर दिया था कि भारतीय न्याय प्रणाली की मुख्य समस्या अदालतों की अत्यन्त न्यून संख्या और उस के कारण लगा मुकदमों का अम्बार है। इस बार 19 अप्रेल, 2004 को सम्पन्न हुई उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्य मंत्रियों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधान मंत्री ने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया। उन्हों ने इस दशा को सुधारने के लिए किए गए प्रयासों को गिनाया और आगे किए जाने वाले प्रयासों की घोषणा की।
संभवतः यह आने वाले संसद और बहुत से प्रमुख राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों के पहले यह इस तरह का अन्तिम सम्मेलन है, और शायद काँग्रेस पार्टी को लगने लगा है कि अब चुनावों में पर्याप्त न्याय की व्यवस्था भी एक मुद्दआ हो सकता है। यही कारण है कि वे इस सम्मेलन में देश की न्याय प्रणाली की (दुर्) दशा के लिए देश के सर्वाधिक चिंतित व्यक्ति दिखाई दिए हैं।
हम उन के द्वारा दिए गए संबोधन का हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं, जो संभवतः इण्टरनेट पर हिन्दी में पहली बार प्रस्तुत हो रहा है। आगे के कुछ आलेखों को हम इस भाषण की आलोचना पर केन्द्रित रखेंगे। साथ ही कॉपीराइट कानून पर भी आलेख जारी रहेंगे।
उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्य मन्त्रियों के सम्मेलन में प्रधान मंत्री श्री मन मोहन सिंह का भाषण
मुझे प्रसन्नता है कि मुझे फिर से उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्य मन्त्रियों के सम्मेलन में यहाँ आप के बीच आने का अवसर प्राप्त हुआ। इस सम्मेलन के आयोजन की पहल के लिए मैं भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश और मेरे सहयोगी श्री भारद्वाज जी का आभार प्रकट करता हूँ।
शासन प्रक्रिया में हमारी भूमिका संविधान तय करता है। लेकिन, हम कैसे सिद्धान्तों को व्यवहार में परिवर्तित करते हैं? यह हमारे स्वयम् के आचरण और देश में चल रहे सामाजिक-राजनैतिक वातावरण पर निर्भऱ करता है। इसलिए यह जरुरी हो गया है कि हम संविधान प्रदत्त हमारी भूमिकाओं के निर्वहन और हमारी जनता की आशाओं विश्वासों की पूर्ति के लिए एक दूसरे से (न्यायपालिका और कार्यपालिका) समय-समय पर आपस में बात-चीत करते रहें।
पूर्व के सभी सम्मेलनों में न्यायालयों में लम्बित मामलों की संख्या को बहुत प्रमुखता से रखा गया। मै यह कहना चाहता हूँ कि यह संख्या हमारे लिए आज तक वैसी की वैसी ही चुनौती बनी हुई है। विभिन्न संसदीय समितियों ने इस समस्या से तुरंत निपटने की जरुरत को रेखांकित किया है। प्रेस और मीडिया ने भी लगातार लम्बे समय से लम्बित मामलों को चर्चा में बनाए रखा है। हमें मिल कर इस विलम्बित न्याय के युग का अंत करने की दिशा में काम करना चाहिए। क्यों कि न्याय में देरी का अर्थ न्याय करने से इनकार करना है।
मैं जानता हूँ कि न्यायपालिका का नेतृत्व और संघीय विधि व न्याय मन्त्रालय इस परिस्थितिजन्य समस्या के प्रति जागरुक और संवेदनशील है। वे लम्बित मुकदमों की संख्या को कम करने के लिए अनेक प्रकार की रीतियाँ अपना चुके हैं। मुझे मन्त्रालय ने सूचित किया है कि इस के बावजूद लगातार जितने मुकदमे निपटाए जा रहे हैं, उस से अधिक मुकदमें नए पंजीकृत हो रहे हैं। जिस से लम्बित मुकदमों की संख्या वैसी ही बनी रहती है इसलिए लम्बित मुकदमों की संख्या शीघ्रता पूर्वक कम करने के लिए विशेष उपाय करने होंगे।
इस के लिए यह सुझाया गया है कि उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों की संख्या बढ़ाई जाए। इस सुझाव में वजन होने के कारण केन्द्र सरकार ने हाल ही में उच्च न्यायालयों के लिए न्यायाधीशों के 152 नए पदों का सृजन किया है। उच्चतम न्यायालय में भी न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाया जाना प्रक्रिया में है।
केन्द्र सरकार ने जिला और अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर भी न्यायिक अधिकारियों की संख्या तुरन्त बढ़ाए जाने की आवश्यकता की ओर राज्य सरकारों का इस ओर ध्यान आकर्षित किया है। कुछ राज्य सरकारों ने इसे गंभीरता से लेते हुए इस दिशा में उपाय किए भी हैं, अन्य राज्य सरकारों को भी इस दिशा में उपाय करने चाहिए, और करने ही होंगे।
इस के अलावा न्यायिक अधिकारियों की संख्या में वृद्धि के साथ ही हमें वर्तमान साधनों को भी उन्नत बनाना होगा। अनेक न्यायालयों की इमारतें और उन के समूह जब से वे निर्मित हुए हैं तब से उसी हालत में हैं। इस से न्यायालयों को काम करने में परेशानी उठानी पड़ती है और वे दुर्दशा में दिखाई पड़ती हैं। न्यायालय परिसरों और न्यायिक अधिकारियों के आवासों के निर्माण में केन्द्र सरकार राज्य सरकारों की सहायता कर रही है। मैं स्वयं न्यायालय परिसरों की मरम्मत के लिए जिम्मेदार लोगों से अपील करता हूँ कि वे उन्हें न्यायपालिका की गरिमा के उपयुक्त बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाएं।
मेरा मानना है कि केन्द्र द्वारा प्रदत्त आर्थिक साधनों का उपयोग करने में राज्य सरकारों ने देरी की है। मेरा मुख्यमन्त्रियों से अनुरोध है कि वे व्यक्तिगत रूप से इस समस्या में रुचि लें और न्यायिक साधनों के आधुनिकीकरण को सुनिश्चित करें।
मुकदमों के अम्बार की समस्या से निपटने का एक और तरीका है कि तंत्र की कार्यक्षमता को निरन्तरता के आधार पर बढ़ाया जाए। यह तकनीक के उपयोग और मानवीय क्षमता में वृद्धि कर के किया जा सकता है। मुझे सूचित किया गया है कि राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी भोपाल न्यायिक प्रशिक्षण की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए काम कर रही है। मुझे विश्वास है कि वहाँ सर्वोत्तम संभव प्रशिक्षण दिया जा रहा है और उच्च न्यायालय तथा राज्य सरकारें राज्यों की न्यायिक अकादमियों का राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी की सुविधाओं के साथ तालमेल बैठाते हुए उन का उपयोग करने की व्यवस्था करेंगे।
न्यायिक अधिकारियों और विधिक व्यवसायरत लोगो की क्षमताओं और स्किल को उन्नत बनाने के लिए प्रशिक्षण प्रभावी सिद्ध हो सकता है। राष्ट्रीय विधि विद्यालयों में से अनेक ने अच्छी गुणवत्ता का प्रशिक्षण देने के लिए सम्मान अर्जित किया है। लेकिन हमें गुणवत्ता को उन्नत बनाने पर निरन्तर ध्यान केन्द्रित रखना होगा जिस से सीढ़ी दर सीढ़ी हम विश्व स्तर की गुणवत्ता हासिल कर सकें। निस्सन्देह रुप से भारत में विश्व स्तर के विधि-व्यवसायी उपलब्ध कराने की क्षमता है और हमें इस की अपेक्षा रखनी चाहिए। विधिक सेवाओं के क्षेत्र में विश्व मानचित्र पर भारत को विशिष्ठ स्थान दिलाने के लिए विस्तृत और उपयोगी राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है।
हमारी सरकार ने ग्राम्य क्षमता को मजबूती प्रदान करने के लिए ग्राम न्यायालय विधेयक 2007 प्रस्तुत किया। इस विधेयक में मध्यवर्ती पंचायतों के स्तर पर परीक्षण न्यायालय स्थापित करने का प्रावधान है। ये न्यायालय ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षाकृत साधारण दीवानी और फौजदारी मामलों में न्याय प्रदान कर सकेंगे। इन की प्रक्रिया सरल होगी जो 90 दिनों में पूरी हो सकेगी। यह अपेक्षा है कि ये न्यायालय न्यायार्थी को उस की दहलीज पर न्याय प्रदान करेंगे। इस तरह के 5000 न्यायालय स्थापित करने की योजना है।
मैं इस गरिमापूर्ण सभा को विश्वास दिलाता हूँ कि केन्द्र सरकार ग्राम न्यायालयों के लिए जरुरी वित्तीय प्रबन्ध करेगा। मुझे गंभीर विश्वास है कि ये न्यायालय वर्तमान न्यायालयों में मुकदमों के अम्बार में कमी लायेंगे। इन न्यायालयों के अधिकारियों का सामर्थ्य ही इन की सफलता की कुँजी होगी, जो जनता के विश्वास को प्रेरित करेगी। यदि न्याय न्यायार्थी की दहलीज पर दिया जाए, तो कौन है जो उस के लिए लम्बी यात्राएं करेगा ?
विवादों में समझौतों के वैकल्पिक प्रयासों से भी मुकदमों के अम्बार में कमी लाई जा सकती है। अनेक विवाद मध्यस्थता और समझौता वार्ता के माध्यम से निपटाए जा सकते हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले में मध्यस्थता और समझौता प्रोजेक्ट कमेटी बना कर एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। मैं आशा करता हूँ कि यह प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ेगी। प्रयत्न यह है कि वकीलों और न्यायिक अधिकारियों को विवादों के हल की वैकल्पिक तकनीकों का प्रशिक्षण दिया जाए। मैं आप को विश्वास दिलाता हूँ कि केन्द्र सरकार इस प्रयास को सहयोग करने को तैयार है। उच्च न्यायालयों और बार कौंसिलों से मेरी अपील है कि वे भारत के मुख्य न्यायाधीश की इस पहल को उत्साह के साथ समर्थन देंगे।
मुकदमों के अम्बार और न्याय में देरी के साथ ही भ्रष्टाचार एक और चुनौती है जिस का हम सरकार और न्यायपालिका में सामना कर रहे हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने मुझे लिखा है कि हम भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने के लिए विशेष न्यायालयों का गठन कर रहे हैं। मैं तुरन्त ऐसा करने की आवश्यकता से सहमत हूँ। इस से देश में और विदेशों में भी हमारी न्याय व्यवस्था में विश्वास बढ़ेगा।
भारत के सम्माननीय मुख्य न्यायाधीश ने मुझे अधिक परिवार न्यायालयों के गठन की आवश्यकता के बारे में भी लिखा है। सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में पारिवारिक विवादों के हल के लिए पारिवारिक न्यायालय अधिनियम 1984 में बनाया गया था। इस का उद्देश्य इस तरह के विवादों में समझोतावादी रुख अपनाना और न्यायिक निर्णयों पर आपसी समझौतों को प्राथमिकता प्रदान करना था। यह पीठासीन न्यायाधीश का बन्धनीय कर्तव्य था कि वह मामले का विचारण शुरू करने के पहले आपसी समझौतों के लिए गंभीर प्रयास करे।
परिवार न्यायालय अधिनियम 1984 राज्य सरकारों को 10 लाख की आबादी के नगरीय क्षेत्रों में परिवार न्यायालयों की स्थापना की आज्ञा देता है। इस मामले में अनेक राज्य सरकारें उन के विधिक दायित्वों की पूर्ति करने में अक्षम रही हैं। जिस के परिणाम स्वरूप, मुख्य रूप से कमजोर सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के न्यायार्थी उन की समस्याओं के हल के लिए लम्बी यात्राओं का कष्ट भुगत रहे हैं। देश के 465 जिलों में कम से कम एक परिवार न्यायालय की स्थापना तुरन्त होना जरुरी है। इस मामले में राज्य सरकारों से मेरी अपील है कि वे इस के लिए तुरन्त कार्रवाई करें।
भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश ने मेरे समक्ष यह दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है कि परिवार न्यायालयों की स्थापना एक समाज कल्याण का उपाय है जिस के लिए केन्द्र सरकार ने पहल की है, संविधान का अनुच्छेद 247 संघीय अनुसूची के किसी विषय पर संसद द्वारा निर्मित और वर्तमान में प्रभावी विधि के अच्छे प्रशासन के लिए केन्द्र सरकार को अतिरिक्त न्यायालयों के गठन का अधिकार देता है, इसलिए इस मामले को केन्द्र सरकार को विचार करना चाहिए। मेरा विश्वास है कि हम माननीय मुख्य न्यायाधीश की इस सलाह को मान सकते हैं। केन्द्र सरकार इस मामले पर सावधानी पूर्वक विचार करेगी।
हमारी जनतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था में जनता की बढ़ती हुई जागरुकता और जनमत की महत्ता इसे महत्वपूर्ण बनाती है कि हम हमारी न्याय प्रणाली के प्रति जनता की आकांक्षाओं और इच्छाओं का प्रसंज्ञान करें। हालाँकि न्यायपालिका और कार्यपालिका के अपने-अपने स्वतंत्र कार्यक्षेत्र और भूमिकाएं हैं, लेकिन हमें इस तंत्र को चलाने के लिए अधिक विश्वसनीय क्षमता और गति से एक साथ मिल कर काम करना होगा।
केन्द्र सरकार उच्चतम न्यायालय और उच्च-न्यायालयों के भार को हल्का करने के लिए उन के साधनों का आधुनिकी करण करने व्यवस्था और प्रक्रिया का कम्प्यूटरीकरण करने और वैकल्पिक न्यायप्रदानकर्ता व्यवस्था प्रदान करने के लिए राज्य सरकारों और न्यायालयों के साथ काम करने को तैयार है। समस्या का हाथों-हाथ हल करना कोई मसला नहीं है। इन उपायों को लागू करना और हमारी जनता के विश्वास को अर्जित करना ही हम सबके सामने वास्तविक चुनौती है। मुझे आशा है कि हम गंभीरता पूर्वक इन छोरों की ओर एक साथ यात्रा कर सकते हैं। मैं इस सम्मेलन की सम्पूर्ण सफलता की कामना करता हूँ।
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आदरणीय द्विवेदी जी,अत्यंत मूल्यवान है आपका बताया एक-एक शब्द। आते जाते रहा करेंगे इस तरफ…..
मनमोहन जी विद्वान हैं और अच्छा कह रहे हैं। पर बतौर राजनेता इस मुद्दे पर क्छ कर सकते हैं – वह देखने की बात होगी।